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सद्धममण्डनम्।
(टीका)
“ येन अन्नेन पानेनवा तथाविधेनेति सुपरिशुद्धन कारणापेक्षयात्वशुद्ध नवा इह अस्मिन् लोके इदं संयम यात्रादिकं दुर्भिक्ष रोगातङ्कादिकं वा साधुः निवेहेन्निवाह येद्वा तदन्नपार्नवा तथाविधं द्रव्यक्षेत्रकालभावापेक्षया शुद्ध कल्प गृहणीयात् । तथैतेषामन्नादीनामनुप्रदान मन्यस्मै साधवे संयमयात्रानिवणसमर्थमनुतिष्ठेत् यदि वायेन केन चिदनुष्ठितेन इदं संयम निर्वहेदसारतामापादयेत् तथाविधमशनं पान मन्यद्वा तथाविध मनुष्ठान नकुर्याद् तथैतेषामशनादीनामनुप्रदानं गृहस्थानां परतीथिकानां स्वयूथ्यानां वा संयमोपघातकं नानुशीलयेदिति तदेतत्सर्व ज्ञपरिज्ञया ज्ञात्वा सम्यक् परिहरेत् ”।
अर्थः
संयति पुरुष, उत्सर्ग मार्गमें शुद्ध और कारणकी अपेक्षासे अशुद्ध जिस अन्न पानसे संयम और दुर्भिक्ष रोगातङ्कादिका निर्वाह करता हो वह अन्न प्रान द्रव्य क्षेत्र काल और भावकी अपेक्षासे शुद्ध तथा कल्पानुसार ही ग्रहण करे और उसी तरहका मन्न पान वह दूसरे साधुको भी संयम निर्वाहार्थ प्रदान करे। अथवा जिसके अनुष्ठान से साधुका संयम नष्ट हो जाय उस तरहका अन्न पान या और भी कोई अन्य कार्य साधु न करे। जिस अन्न पानसे साधुका संयम भ्रष्ट हो जाय ऐसा अन्न पान, गृहस्थ, स्वयूथिक, या परतीर्थीको साधु न देवे किन्तु ज्ञपरिज्ञासे इसे जानकर प्रत्याख्यान परिज्ञासे त्याग कर देवे। यह उक्त गाथांका टीकानुसार अर्थ है।
___ इस गाथामें जिस अन्न पानके द्वारा साधुका संयम भ्रष्ट हो जाता है उसे स्वयं लेना और दूसरेको देना वर्जित किया है परन्तु "गृहस्थको दान देना संसार भ्रमणका हेतु जान कर साधु छोड़ देवे" यह नहीं कहा है इसलिए इस गाथाकी साक्षी देकर गृहस्थके दानको संसार भ्रमणका हेतु बताना मूर्खताका परिणाम है । इस गाथाको लिख कर इसके नीचे भ्रमविध्वंसनकारने जो टब्बा अर्थ लिखा है वह भी न तो मूल पाठके शब्दोंसे निकलता है और न टीकासे ही मिलता है इसलिये वह महा अशुद्ध और मिथ्या अर्थका वोधक है उसका आश्रय लेकर गृहस्थके दानको संसार भ्रमणका हेतु बताना मिथ्या है। इस गाथाके चतुर्थ चागमें "तं.वे परिजागिया" यह वाक्य आया है खींचातानीमे यदि कोई इस वाक्यका अशी करे कि पूर्वोक कार्यको संपार भ्रमका हेतु जान कर साधु छोड़ देवे तो इस गाथा पूर्व गाथामें भी यही वाक्य आया है इसलिये उसे वहां भी यही अर्थ करना होगा । वह गाथा यह है:
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