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________________ मिथ्यात्विक्रियाधिकारः। दशनाराधनाका फल समझना चाहिये क्योंकि चारित्र रहित ज्ञान दर्शन तथा देश व्रतकी . आराधनासे उत्कृष्ट असंख्य भव भी होते हैं। इस टीकाकारकी बातको स्वीकार करते हुए जीतमलजीने "प्रश्नोत्तर तत्ववोध" नामक ग्रन्थमें लिखा है कि "अष्टम शतके भगवती दशम उद्देशे इष्ट जघन्य ज्ञान आराधना सत अठ भव उत्कृष्ट । वृत्तिकार का यह विध चरित सहित जे ज्ञान तेहनी जघन्य आराधना तसुभव ए पहिचान बीजा समदृष्टि तणा देशवतीना जे ह । भव उत्कृष्ट असंख्य छै न्याय वचन छै एह । इन दोहोंमें टीकाकारकी बातको प्रमाण मानते हुए जीतमलजीने चारित्र रहित जघन्य ज्ञान दर्शन तथा देशवतकी आराधनासे उत्कृष्ट असंख्य भव होना भी स्वीकार किया है। अब इनको क्रियावादी मनुष्य और तिर्यञ्चका वैमानिक भवके सिवाय दूसरे भवका ग्रहण करना भी मानना पड़ेगा। क्योंकि जिस जघन्य ज्ञान दर्शन तथा देशवत के आराधक पुरुषको असंख्य भवोंसे मोक्ष जाना है वह अपनी असंख्य भवोंकी पूर्ति वैमानिक और मनुष्य भवोंमें ही नहीं कर सकता क्योंकि मनुष्य भवसे वैमानिकका और वैमानिकसे मनुष्य भवका लगातार सात आठ वारसे अधिक होना भगवती शतक २४ में वर्जित किया है। इसलिये असंख्य भवों की पूर्ति के लिये उसे वैमानिकके सिवाय दूसरा भव करना ही होगा इस प्रकार जब कि असंख्य भवांसे मोक्ष जाने वाले जघन्य ज्ञान दर्शन तथा देशबती पुरुषका वैमानिकके सिवाय दूसरेका आयुर्वध होना भ्रमविध्वंसनकार को स्वीकृत है तब फिर क्रियावादी मनुष्य और तिर्यञ्चका वैमानिक देवके सिवाय दूसरा भव ग्रहण करना भी अपने आप ही स्वीकार हो जाता है क्योंकि जघन्य ज्ञान दर्शन तथा देशवतका आगधक पुरुष क्रियावादी ही है अक्रियावादी नहीं। अत: भगवती सूत्र शतक ३० उद्देशा एकका नाम लेकर सभी क्रियाबादी मनुष्य और तिय्येन्चको एक वैमानिकका ही आयु बंध बतलाना मिथ्या समझना चाहिये । [बोल २० वां समाप्त (प्रेरक) भ्रमविध्वंसनकार भ्रमविध्वंसन पृष्ठ १३ के ऊपर उत्तराध्ययनसूत्र अध्ययन ७ गाथा बीसवींको लिख कर उसकी समालोचनामें लिखते हैं कि "एतो मिथ्यात्वी अनेक भला गुणां सहितने सुव्रती कह्यो । ते भली करणी आज्ञा मांहि छै। अने क्षमादि गुग आज्ञामें नहीं हुवे तो सुबती क्यू कयो । ते क्षमादिगुणारी करणी अशुद्ध हुवे तो कुलती Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034599
Book TitleSaddharm Mandanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Maharaj
PublisherTansukhdas Fusraj Duggad
Publication Year1932
Total Pages562
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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