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सद्धर्ममण्डनम् ।
कहता एतो साम्प्रत भली करणी आश्रय मिथ्यात्वीने सुत्रती को छै । अने जो सम्यदृष्टि हुवे तो मरीने मनुष्य हुवे नहीं" इसका क्या समाधान ?
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( प्ररूपक )
उत्तराध्ययन सूत्रकी वह गाथा दीपिका के साथ लिख कर इसका समाधान किया जाता है -
वह गाथा यह है- "वे मायाहिं सिक्खाहिं जेनरा गिहिसुब्वया । उवेंति माणुस जोणिं कम्म सच्चाहु पाणिणो "
( उत्तरा० अ० ७ गाथा २० )
इसकी दीपिका यह है
" मानुषं योनिं के ब्रजन्ति तदाह – ये नराः विमात्राभिर्विविधप्रकाराभिः शिक्षा भिः गृहिसुत्रताः गृहिणश्चते सुनताश्च गृहिसुव्रताः गृहीतसम्यक्त्वादिगृहस्थद्वादशघ्रताः सत्यान्यवंध्यफलानि ज्ञानावरणीयादीनि कर्माणि येषां तेसत्यकर्माणः कर्मसत्याः प्राकृतत्वात्कर्म शब्दस्य प्राक्प्रयोगः ते जीवा "हु" इति निश्वयेन मानुषं योनि मुत्पद्यन्ते”
इसका अर्थ यह है—
मनुष्य योनिमें कौन प्राणी जन्म लेते हैं यह इस गाथामें बतलाया है। जो मनुष्य विविध प्रकारकी शिक्षाओंसे युक्त और गृहस्थ सम्बन्धी सम्यक्त्व आदि बारह व्रतोंके धारक हैं तथा जिनके ज्ञानावरणीयादि कर्म अवश्य फल देनेवाले हैं वे अवश्य मनुष्य योनिमें जन्म पाते हैं । यह गाथाकी दीपिकाका अर्थ है ।
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यहां सुव्रत शब्दका अर्थ दीपिका कारने बारह व्रतधारी किया है इस लिए इस गाथा में कहा हुआ सुवतपुरुष सम्यग्दृष्टि है मिथ्या दृष्टि नहीं । अतः इस गाथा में कहे हुए सुव्रत पुरुषको मिथ्या दृष्टि बतलाना दीपिकासे विरुद्ध समझना चाहिए ।
यदि कोई कहे कि इस गाथामें कहा हुआ सुव्रत पुरुष सम्यग्दृष्टि होता तो वह मनुष्यभवमें क्यों जाता क्योंकि सम्यग्दृष्टि मनुष्य एक वैमानिककी ही आयु बांधते हैं तो इसका समाधान इसके पूर्व बोलोंमें विस्तारके साथ सप्रमाण दे दिया गया है और यह सिद्ध कर दिया है कि सम्यग्दृष्टि मनुष्य भी वैमानिक देवसे भिन्न भवको प्राप्त करते हैं अतः मनुष्य भवके पानेसे गाथोक्त सुव्रत पुरुषको मिथ्यादृष्टि बतलाना अयुक्त समझना चाहिए ।
( बोल २१ वां समाप्त
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