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लिखा । तथा कहीं अपूर्ण पाठ लिख कर जनतामें भ्रम खण्डन करनेके बहानेसे भ्रमका प्रचार किया। इस प्रकार जीतमलजीने भ्रमविध्वंसनमें दान दया आदि पवित्र धर्मों का उच्छेद करनेके लिये पूर्ण प्रयत्न किया है । इस प्रथके प्रचार होनेसे जनताके अन्दर ऐसा अज्ञान फैल गया है कि थली प्रान्तमें रहने वाले तेरह पन्थी ओसवाल बन्धुओंने जीवरक्षा रूप धर्म का बहिष्कार सा कर दिया है। इस अनर्थ परम्पराको बढ़ते देख कर जनताके कल्याणार्ग पूज्य श्री हुकुमोचन्दजी महाराजके पटानुपाट पर विराजमान १००८ पूज्य श्री जवाहिरलालजी महाराजने बहुत परिश्रम के साथ यह सद्धर्ममण्डन नामक Hथ बनाया है।
इस ग्रंथमें मूल सूत्र और उनसे मिलती हुई टीका, भाष्य, चूर्णी और कहीं कहीं मूलानुपारिणी टव्वाओंका आश्रय लेकर सत्य धर्मको प्रकट करनेकी पूर्ण चेष्टा की गई है। इस प्रथको मनन पूर्वक अवलोकन करनेसे शास्त्र विरुद्ध तेरह पन्थियोंका सिद्धान्त साफ साफ मिथ्या नजर आने लगता है और जीवरक्षा तथा दान माद धर्म, शास्त्रीय प्रमाणित होते हैं । अतः सत्य धर्म ज्ञान की इच्छा करने वाले पुरुषोंको अवश्य यह ग्रंथ देखने योग्य है और बाईस सम्प्रदायके श्रावकों के लिये तो इसे देखना परम आवश्यक है । यद्यपि तेरह पन्थ के शास्त्र विरुद्ध सिद्धान्तोंका खण्डन करनेके लिये अनेक मुनि महात्माओंने परिश्रमके साथ अनेक प्रथ बनाये हैं और तेरह पन्यकी कुयुक्तियोंसे चतुर्विध संघकी बहुत ही रक्षा को है। इस उपकार के लिये उन महात्माओंका यह बाईस सम्प्रदाय ऋणी है तथापि उन महात्माओंके प्रथ पुरानी भ षामें लिखे हैं और कई जगह दृष्टि दोषसे उनमें त्रुटियां भी रह गई हैं तथा कहीं कहीं उनमें अशुद्ध टप्वा भी छप गये हैं इस लिये आधुनिक प्रचलित भाषामें इस नवन प्रथको निकालनेकी मावश्यकता प्रतीत हुई।
इस प्रथके बनानेमें सबसे प्रधान कारण यह है कि पूर्व महात्माओंके बनाये हुए पथोंमें इस "भ्रमविध्वंसन" का पूर्ण खण्डन नहीं आया है। क्योंकि वे सब पंथ भ्रमविध्वंसनके छपनेसे पहले के बने हैं। इस लिये उन ग्रंथों में भ्रमविध्वंसनके कुयुक्तियों का खण्डन नहीं होना स्वाभाविक है। इस त्रुटिको दूर करनेके लिये यह प्रथ बनाना आवश्यक हुआ । परन्तु किसी अच्छे का-के लिये सुअवसरका मिलना सुलभ नहीं है। सौभाग्यवश १००८ पूज्य श्री जवाहिर लालजी महाराजका भीनासरमें सम्बत् १९८४ में चातुर्मास्य हुआ। महाराज साहेबसे इस कार्यके लिये सङ्घको पहलेसे ही प्रार्थना थी और महाराज साहेव स्वयं भी इस कार्यको करना चाहते थे सुअवसर देख कर महाराजने घोर अन्धकारमें पड़ी हुई असन्मार्गमें प्रवृत्त जनताको सत्पथमें प्रवृत्त करनेके लिये
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