________________
आश्रवाधिकारः ।
४३१
उसके लक्षण पांच आश्रव रूपी भी हो सकते हैं इसलिये कृष्णलेश्याके लक्षण होनेके कारण पांच माश्रवको एकांत अरूपी कहना मिथ्यात्वका परिणाम है । संसारी जीन रूपी भी हैं इस विषय में भगवती शतक १७ उद्देशा २ का मूलपाठके सिवाय भगवती शतक २ उद्देशा १ का मूलपाठ भी प्रमाण है वह पाठ यह है :
"जेऽवियते खंदया ! जाव सअंते जीवे अणतेजीवे तस्सविवर्ण अयम एवं खलु जांव दव्वओणं एगे जीवे सअंते खेत्तओणं जोवे असंखेज एसिए असंखेज एसोगाढे अस्थिपुण से अन्ते । काल ओणं जीवे नकदाइ न आसी णिच्चे नस्थिपुण से अन्ते । भाव ओणं जीवे अनंता णाणपज्जवा अनंता दंसण पज्जवा अनंता चारित पज्जया अनंता अगुरु लहु पज्जवा णत्थिपुण से अन्ते । सेत्तं दव्यमो जीवेसअंते खेत्तओ जीवे सअन्ते कालओ जोवे अनंते भावओ . जीवे अणते"
( भ० श० २ उ०१)
अर्थ
हे स्कन्दुक ! जीव सान्त है या अनन्त है तुम्हारे इस प्रश्नका उत्तर इस प्रकार है-जीव - द्रव्यसे एक और सान्त है क्षेत्रसे असंख्य प्रदेशी और असंख्य आकाश प्रदेशको व्याप्त किया हुआ - है अतः वह सांत है । कालसे जीव अनन्त है क्योंकि वह सब कालमें विद्यमान रहता है कभी भी • उसका अभाव नहीं होता । भावसे जीव अनन्त है अनन्त ज्ञानपर्याय, अनन्त दर्शन पर्याय, अनंत चारित्र पर्य्याय, अनन्त लघु गुरु पर्य्याय, और अनन्त अगुरु अलघु पर्य्याय जीवके होते हैं अतः • भावसे जीव अनन्त है । सारांश यह है कि द्रव्य और क्षेत्रसे जीव सांत और काल तथा भावसे अनन्त है ।
यहां मूल पाठ में कहा है कि "जीवके अनन्त लघु गुरु पर्य्याय और अनन्त अलघु अगुरु पर्य्याय होते हैं” इससे स्पष्ट सिद्ध होता है कि संसारी जीव रूपी भी है क्योंकि रूपी पदार्थ ल गुरु पर्य्याय और अगुरु अलघु पर्य्याय नहीं हो सकते । इस पाठकी टीकामें टीकाकारने लिखा है
"अनन्ता गुरुलघुपर्य्याया औदारिकादिशरीर | ण्याश्रित्य इतरेतु कार्मणादि - द्रव्याणि जीव स्वरूपंचाश्रित्येति”
अर्थात् औदारिकादि शरीर की अपेक्षासे जीवके अनन्त लघु गुरु. पर्याय कहे गये हैं और कार्मण आदि द्रव्य तथा जीवके स्वरूप की अपेक्षासे अनन्त मगुरु अलघु पर्याय कहे गये हैं ।
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com