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________________ सद्धर्ममण्डनम्। (प्ररूपक) ठाणाङ्ग ठाणा ५ के मूलपाठमें आश्रव द्वारका भेद बतलानेके लिये “मिच्छत्त" यह पाठ आया है इसका अर्थ है मिथ्यात्व, मिथ्यात्वसे जैसे मिथ्यादृष्टिका ग्रहण होता है उसी तरह मिथ्यादर्शन शल्यका भी-ग्रहण होता है इसलिये मिथ्यादृष्टि और मिथ्यादर्शन शल्य ये दोनों ही आश्रव हैं केवल मिथ्यादृष्टि ही नहीं अतः मिथ्यात्व पदसे केवल मिथ्यादृष्टिका ही ग्रहण करना और मिथ्यादर्शन शल्यका ग्रहण नहीं करना अप्रामाणिक है। मिथ्यादर्शन शल्य भी आश्रव है और वह रूपी है इसलिये मिथ्यात्व आश्रव को एकांत अरूपी बताना अज्ञान है । आश्रवके विषयमें भीषणजी और जीतमलजीने कई विरुद्ध बाते भी कह डाली हैं। भीषणजीने आश्रवको उदयभावमें माना है और मिथ्याष्टिको क्षयोपशम भावमें माना है अत: इनके मतानुसार मिथ्यादृष्टि आश्रव ही नहीं हो सकता क्योंकि मिथ्यादृष्टि क्षयोपशम भावमें है और आश्रव उदयभावमें है फिर ये दोनों एक कैसे हो सकते हैं ? अत: भीषणजीकी यह प्ररूपणा पूर्वापर विरुद्ध है। भीषणजीके उक्त आशय का लेख यह है___"आश्रवभाव दोय, उदय और पारिणामिक । मोहनीय कर्मरो क्षयोपशम होय तो आठ बोल पामे चार चारित्र, एक देश व्रत और तीन दृष्टि" इस लेखमें भीषणजीने आश्रवको उदयभावमें और मिथ्यादृष्टिको क्षयोपशमभाव में माना है तो भी मिथ्यादृष्टिको आश्रवमें मानना इनके अविवेकका पूर्ण उदाहरण समझना चाहिये। (बोल ७ वां समाप्त) (प्रेरक) भ्रमविध्वंसनकार भ्रमविध्वंसन पृष्ठ ३०९ पर उत्तराध्ययन सूत्रका मूलपाठ लिख कर उसकी समालोचना करते हुए लिखते हैं: "अथ इहां पांच आश्रवने कृष्णलेश्याना लक्षण कह्या ते मांटे जे कृष्णलेश्या अरूपी तेहना लक्षण पांच आश्रव ते पिण अरूपी छै" ( भ्र० पृ० ३०९) इसका क्या समाधान ? '. (प्ररूपक) - कृष्णलेश्या संसारी जीवका परिणाम है और संसारी जीवको भगवती शतक १७ उद्देशा २ में रूपी होना भी कहा है इसलिये कृष्णलेश्या रूपी भी सिद्ध होती है अतः Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034599
Book TitleSaddharm Mandanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Maharaj
PublisherTansukhdas Fusraj Duggad
Publication Year1932
Total Pages562
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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