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________________ आश्रवाधिकारः। ४२ भगवती सूत्र शतक १२ उद्दशा ५ में मिथ्यात्वको चतुस्स्पशी पुद्गड माना है फिर मिथ्यात्व आश्रव एकांत जीव कैसे हो सकता है ? बल्कि इस पाठसे को आश्रवका अजीव होना ही सिद्ध होता है। दूसरा आश्रव द्वार अव्रत है। अठारह पापोंसे बिलकुल नहीं हटनेका नाम अव्रत है। अठारह पाप चतुःस्पर्शी पुद्गल माने गये हैं इसलिये दूसरा आश्रव द्वार भी अजीव ही सिद्ध होता है। प्रमाद और कषाय, मोहसे उत्पन्न हुई कर्म की प्रकृति के नाम हैं और मोह कर्मको शास्त्रमें चतुःस्पर्शी पुद गल माना है इसलिये मोह कर्मसे उत्पन्न होने वाले प्रमाद और कषाय भी चतु:स्पर्शी पौद गलिक होनेसे अजीव ही सिद्ध होते हैं। पांचवां आश्रव द्वार योग है यह मन, वचन, और कायके भेदसे तीन प्रकारका है। मन और वचनके योगको चतुःस्पर्शी और काय योगको स्पर्शी कहा है इसलिये योगाश्रव भी अजीव सिद्ध होता है अत: ठाणाङ्ग सूत्र के उक्त पाठका नाम लेकर आश्रवको एकांत जीव बतलाना अज्ञान समझना चाहिये । (बोल छटा समाप्त) (प्रेरक) भ्रमविध्वंसनकारने तीन दृष्टियोंका नाम लेकर मिथ्यात्व आश्रवको एकांत जीव और अरूपी बतलाया है। इसका क्या समाधान ? (प्ररूपक) भगवती सूत्र शतक १२ उद्देशा ५ के मूलपाठमें तीन दृष्टियोंको अरूपी और मिथ्यादर्शन शल्यको रूपी कहा है इसलिये मिथ्यात्व आश्रव एकांत मरूपी नहीं हो सकता। भगवतीका पाठ यह है: "अहभंते ! पेज्जे दोसे कलहे जाव मिच्छा दंसण सल्ले एसणं कइवण्णे ४ जहेव कोहे तहेव चउफासे" (भग० शतक १२ उ०५) इस पाठमें भगवान्ने मिथ्यादर्शन शल्यको चतुःस्पर्शी पौद गलिक कहा है अतः मिथ्यात्व पाश्रव रूपी भी है और अजीव भी है उसे एकान्त अरूपी और जीव बताना अज्ञान है। (प्रेरक) भगवती सूत्रके उक्त मूलपाठमें मिथ्यादर्शन शल्यको रूपी कहा है परन्तु वह आश्रव नहीं है आश्रव तो केवल मिथ्यादृष्टि है और वह अरूपी है फिर मिथ्यादर्शनके रूपी होनेसे आश्रव कैसे रूपी हो सकता है ? Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034599
Book TitleSaddharm Mandanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Maharaj
PublisherTansukhdas Fusraj Duggad
Publication Year1932
Total Pages562
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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