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सधर्ममण्डनम् ।
ऊपर बताया हुआ लेश्याका दृष्टान्त तेरह पंथी साधु चित्रके साथ दिखलाकर लोगोंको इसका परिचय कराते हैं परन्तु जब साधुओंके लेश्याका प्रसंग आता है तब वे इस दृष्टान्तके भावको झट भूल जाते हैं और साधुओंमें यया कथं चित् कृष्गादिक तीन अप्रशस्त भाव लेश्याओंका स्थापन करने लग जाते हैं यहां तक कि वे पंचमहाव्रतधारी साधुओंको आस्रवोंका सेवन करने वाला भी कह डालते हैं। इसी तरह मरते प्राणीकी प्राण रक्षा करनेमें, दुखी जीव पर दया करके उसको दान देनेमें बुरी लेश्याका स्थापन करके उसे एकान्तपाप कहते हैं। बुद्धिमानोंको सोचकर देखना चाहिये कि जब फल तोड़नेके परिणाम भो भली और बुरी दोनों ही लेश्याओंमें होते हैं तब मरते प्राणीकी प्राण रक्षा करने और दुखी जीव पर दया लाकर उसे दान देनेमें बुरी लेश्या कैसे हो सकती है ?।
( बोल १३ समाप्त)
इति लेश्याप्रकरणम् ।
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