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________________ अनुकम्पाधिकारः । २५५ (प्ररूपक ) निशीथ सूत्रके मूलपाठमें किसी प्राणीको भय देनेसे साधुको चौमासी प्रायश्चित्त होना कहा है इसलिए ओघासे बिल्लीको डराकर चूहेकी रक्षा करना पाप है तो काटनेके लिए आते हुए कुत्ते को और माग्नेके लिए आती हुई गाय भैंसको ओघासे डराकर अपनी रक्षा करनेमें भी पाप ही होना चाहिए। परन्तु भ्रम विध्वंसन कारके मतानुयायी साधु कुत्ते, गाय, भैंस आदि प्राणियों को ओघासे डराकर अपनी रक्षा कर लेते हैं और इससे निशीथ सूत्रकी आज्ञाका उलंघन भी नहीं मानते परन्तु ज्योंही बिल्लीको डराकर चूहे की रक्षा करनेका प्रश्न आता है त्योंही झटपट निशीथ सूत्रकी आज्ञाका उलंघन होने का कोलाहल मचाने लगते है यह इनका दूसरे जीवोंपर द्वेष करनेके सिवाय और कुछ नहीं है । जब कि ओघासे गाय भैंस और कुत्त े को डराकर अपनी रक्षा करने में निशीथ की आज्ञा उल्लंघन नहीं होती तब ओघासे बिल्लीको डराकर चूहेकी रक्षा करनेमें निशीथ सूत्रकी आज्ञा उल्लंघन कंसे हो सकती है ? यह बुद्धिमानोंको स्वयं सोच लेना चाहिए । वास्तवमें, किसी जीवको संतानेके अभिप्रायसे भय देना पाप है और इसी पाप के लिए निशीथ सूत्रके मूलपाठमें प्रायश्चित्त कहा गया है। किसी जीवको पापसे बचाने, तथा आत्मरक्षा और पर रक्षा करनेके लिए नासमझ प्राणीको भय दिखाकर हटा देना पाप नहीं है और उसके लिए निशीथ सूत्रमें प्रायश्चित्त भी नहीं कहा गया है क्योंकि किसी ना समझ प्राणीको भय दिखाकर जो पाप करनेसे हटाता है या आत्मरक्षा तथा पर रक्षा करता है उसका अभिप्राय उस नासमझ प्राणीको संतानेका नहीं किन्तु उसे पाप करनेसे हटानेका होता है इसलिए यह पाप नहीं कहा जा सकता यह तो उस प्राणी या करना है फिर इसमें प्रायश्चित्त कैसे हो सकता है ? यह हरएक बुद्धिमान समझ सकता है | अतः निशीथ सूत्रका नाम लेकर जीव रक्षा करनेमें पाप बताना अज्ञानियोंका कार्य समझना चाहिए । ( बोल २४ वां ) ( प्रेरक ) भ्रमविध्वंसनकार भ्रम० पृ० १५१ पर निशीथ सूत्र उद्देशा १३ बोल १४ का मूल पाठ लिखकर उसकी समालोचना करते हुए लिखते हैं “ore अठे गृहस्थनी रक्षा निमित्त मंत्रादिक कियां अनुमोद्यां चौमासी प्रायश्चित्त को तो जे उ दुरादिकनी रक्षा साधु किम करे। अने जो रक्षा कियां धर्म हुवे तो डाकिनी शाकिनी भूतादिक काढ़ना सर्पादिकना जहर उतारना, औषधादिक करी T Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034599
Book TitleSaddharm Mandanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Maharaj
PublisherTansukhdas Fusraj Duggad
Publication Year1932
Total Pages562
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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