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सधर्म मण्डनम् ।
तेजः, पद्म और शुक्ल लेश्या वाले जीवोंको समुच्चय जीवोंके समान ही समझना चाहिये परन्तु इनमें सिद्ध जीवोंको न कहना चाहिये क्योंकि सिद्ध जीवोंमें कोई लेश्या नहीं होती।
तेजोलेश्याके विषयमें सत्रका पाठ इस प्रकार है -
"तेउलेस्साणं भन्ते ! जीद किं आयारंभावि जाव अणारंभा ? गोयमा ! अत्थेगइया आयार भावि जाव णो अणारभा अत्येगइया णो आयार भा जाव अणार भो । सेकेणट ठेणं भन्ते ! एवं बुचा ? गोयमा ! दुविहा तेउलेस्सा पण्णता संजयाए असंजयाए"
(आ० स०) अर्थः
हे भगवन् ! तेजोलेश्या वाले जीव, आत्मारंभी परारंभी और तदुभयारंभी होते हैं या अनारंभी होते हैं?
(उ०) हे गोतम ! तेजोलेश्या वाले कोई कोई जीव, आत्मारंभी परारंभी और तदुभयारंभी होते हैं अनारंभी नहीं होते और कोई कोई अनारंभी होते हैं आत्मारंभी परारंभी और तदुभयारंभी नहीं होते।
हे भगवन् ! तेजोलेश्या वाले जीवों में यह दो भेद क्यों होते हैं ?
हे गोतम ! तेजोलेश्यावाले जीव दो तरह के होते हैं एक संयत और दूसरे असंयत । संयत भी दो प्रकार के होते हैं प्रमादी और अप्रमादो। अप्रमादी आत्मारंभी परारंभी और सदुभया' रंभी नहीं होते अनारंभी होते हैं परन्तु प्रमादी अशुभ योगी साधु, अशुभ योग की अपेक्षा से आत्मारंभी परारंभी और तदुभयारंभी होते हैं अनारंभी नहीं होते।
यह भगवतीके मूलपाठ और टीकाका अर्थ है।
इस पाठमें कहा है कि कृष्ण नील और कापोत लेश्या वाले जीवोंको ओधिक दण्डकके जीवोंके समान ही समझना चाहिये परन्तु विशेष इतना है कि कृष्ण नील और कापोत लेश्याओंमें प्रमादी और अप्रमादी ये दो भेद नहीं होते। इस मूलपाठको बातका अभिप्राय बतलाते हुए टीकाकारने लिखा है कि
___ "कृष्णादिषुहि अप्रशस्वभाव लेश्यासु संयतत्वं नास्ति' अर्थात् कृष्ण, नील और कापोत, इन भाव लेश्याओंमें साधुपन नहीं होता इसलिये कृष्णादि तीन अप्रशस्त भाव लेश्याओं में प्रमादी और अप्रमादी, ये दो भेद वर्जित किये गये हैं।
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