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________________ मिथ्यात्विक्रियाधिकारः । सभी जीव भ्रमविध्वंसनकारके मत में मोक्ष मार्गके आराधक ही ठहरेंगे । पर यह बात शास्त्र विरुद्ध है | भगवती सूत्र शतक ८ उद्देशा १० के मूल पाठमें स्पष्ट लिखा है कि जो मोक्ष मार्ग एक अंशका भी आराधक नहीं है वह सर्वविराधक कहलाता है । यदि संवर रहित अप्रशस्त निर्जरा, धर्ममें हो तो कोई भी जीव सवं विराधक नहीं हो सकता । अतः अप्रशस्त निजराको धर्ममें कायम करने के लिए धर्मका दो भेद संवर और निर्जरा बतलाना दुराग्रहका परिणाम समझना चाहिए । बोल तीसरा । ( प्रेरक ) संवर और निर्जरा, ये दो धर्मके भेद हैं ऐसा अर्थ बतलानेवाला यद्यपि कोई मूल पाठ शास्त्रमें नहीं आया है तथापि भ्रमविध्वंसनकारने दशवैकालिक सूत्रके पहले अध्ययनकी पहली गाथा लिख कर संवर रहित अप्रशस्त निर्जगको वीतरागकी आज्ञामें सिद्ध करनेके लिए उक्त गाथाकी समालोचनामें यह लिखा है कि “इहां धर्मने माङ्गलिक उत्कृष्ट कह्यो । ते अहिंसाने संयमने अने तपने धर्म को छै । संयमते संवर धर्म अने तपते निर्जरा धर्म छै | अने त्याग बिना जीवरी दया पाले ते अहिंसा धर्म छे। अने जीव हवारा त्याग ते संयम पिण कहीजे अने अहिंसा पिण कहीजे अहिंसा तिहां तो संयमनी भजना छै अने संयम तिहां अहिंसानी नियमाछै । ए अहिंसा धम अने तप धर्म तो पहिला चार गुणठाणा पिण पावे छै" इसका क्या समाधान । (प्ररूपक) ( ० पृ० २ ) दशवैकालिक सूत्र प्रथम अध्ययनकी पहली गाथामें श्रुत और चारित्र धर्म ही अहिंसा,, संयम, तथा तप कह कर बतलाये हैं परन्तु सम्यक्त्व रहित द्रव्य अहिंसा और संबर रहित तप नहीं कहे हैं क्योंकि जो अहिंसा, सम्यक्त्वके बिना होती है और जो तप संवर रहित होता है उनमें कोई महत्त्व नहीं है । ऐसी द्रव्यरूपा अहिंसा और संवर रहित द्रव्य तप जीवने अनन्त बार किये हैं पर उनसे स्वल्प भी मोक्ष मार्गकी आराधना न हुई । अतः उनका कथन न होकर इस गाथामें श्रुत और चारित्र धर्मके अन्तर्गत जो सम्यक्त्वके साथ होनेवाली अहिंसा तथा संवरके साथ होनेवाला तप है उन्हींका कथन है । इसलिए गाथोक्त अहिंसा और तप धर्मको मिथ्यादृष्टिमें कायम करना अज्ञान मूलक है । अतएव गाथामें कहे हुए धर्म पदकी व्याख्या करते हुए नियुक्तिकारने लिखा: है कि Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034599
Book TitleSaddharm Mandanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Maharaj
PublisherTansukhdas Fusraj Duggad
Publication Year1932
Total Pages562
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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