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सद्धर्ममण्डनम् ।
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के विशेषण क्रोध मान आदि क्यों देते ? किन्तु उक्त विशेषण न लगा कर सीधा ही ब्राह्मग मात्रको पापकारी क्षेत्र कह देते परन्तु शास्त्रकारने क्रोधी मानी हिंसक आदि ब्राह्मणोंको ही पापकारी क्षेत्र कहा है और मनुजीने भी क्रोधी मानी हिंसक ब्राह्मगोंको पापी नरक गामी और कुपात्र कहा है अतः ब्राह्मग मात्रको कुपात्र कहना उत्सूत्र भाषण समझना चाहिये।
वास्तवमें चाहे ब्राह्मग हो या और कोई हो जो चोरी जारी हिंसा आदि बुरा कर्म करता है वह कुपात्र तथा पापकारी क्षेत्र है उसको चोरी जारी आदि असत्कर्म करनेके लिये दान देना कुपात्र दान और एकान्त पाप है परन्तु जो उक्त दोषोंसे रहित है उसको सत्कर्म करनेके लिये दान देना और हीन दीन दुःखी जीवको अनुकम्पा दान देना एकान्त पाप नहीं है अतः उक्त गाथाका नाम लेकर अनुकम्पा दानका खण्डन करना अज्ञानियोंका कार्य समझना चाहिए।
(बोल २० वां)
(प्रेरक)
भ्रमविध्वंसनकार भ्रमविध्वंसन पृष्ठ ८४ पर उपासक दशाङ्ग सूत्रका मूल पाठ लिख कर साधुसे इतरको दान देने वाले श्रावकको पन्द्रहवें कर्मादानका सेवन रूप पाप होना बतलाते हैं जैसे कि उन्होंने लिखा है “ तिवारे कोई कहे इहां असं यति पोष व्यापार कयो छै तो तुमे अनुकम्पारे अर्थे असंयतिने पोष्यां पाप किम कहो छो तेहने उत्तर-ते असंयतिने पोषी पोषीने आजीविका करे ते असंयति पोष व्यापार छ अने दाम लियां बिना असंयतिने पोषे ते व्यापार नथी कहिए पर पाप किम न कहिए जिम कोयला करी बेंचे तो अङ्गाल कम व्यापार अने दाम लियां बिना आगलाने कोयला करी आपे ते व्यापार नथी परं पाप किम न कहिए (भ्र० पृ० ८५)
इसका क्या समाधान ? (प्ररूपक)
पन्द्रहवें कर्मादानका नाम मूल पाठमें “असई जग पोषगया” यह लिखा है इस नामके अनुसार असती यानी व्यभिचारिणी स्त्रियोंको पोष कर उनसे भाड़ेपर व्यभिचार कराने रूप व्यापार करना पन्द्रहवें कर्मादानका अर्थ है साधुसे भिन्न जीवोंको पोषण करना अर्थ नहीं है अतः भ्रमविध्वंसनकारने जो पन्द्रहवें कर्मादानका "असंयति पोषणता" यह नाम रच कर साधुसे भिन्न जीवोंके पोषण करनेसे कर्मादानका पाप होना बतलाया है वह एकान्त मिथ्या है।
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