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दानाधिकारः।
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भ्रमविध्वंसनकारने उपासक दशांग सूत्रका जो मूल पाठ, भ्र० वि० में उधृत किया है उसमें भी पन्द्रहवें कर्मादानका नाम “ असई जण पोषणया" यही लिखा है
और उस पाठके टव्वा अर्थमें भी साधुसे भिन्नको दान देनेसे उक्त कर्मादानका सेवन न कह कर वेश्या आदिके पोषण करने रूप व्यापारको ही कर्मादानका सेवन कहा है। देखिए इस पाठका टव्या अर्थ भ्रमविध्वंसनकारका दिया हुआ यह है:
" वेश्या आदिकने पोषणा आदिक व्यापार कर्म ” इसमें साधुसे भिन्नको पोषग रूप व्यापार न कह कर वेश्या आदिके पोषण रूप व्यापारको कर्मादानका सेवन बतलाया है तथापि जगत्में भ्रम फैलानेके लिए जीतमलजीने अपने मनसे १५ वें कर्मादानका " असंयति पोषणता" यह नाम रक्खा है । उसपर भी पहले प्रश्न रूपमें दूसरेसे स्वीकार कराकर तब पीछे खुदने स्वीकार किया है। उन्होंने लिखा है किः
"तिवारे कोई इम कहे इहां असंयति पोष व्यापार को छै तो तुम्हे अनुकम्पारे अर्थे असंयतिने पोष्यां पाप किम कहो छो” इत्यादि । बुद्धिमानोंको सोचना चाहिये कि पन्द्रहवें कर्मादानका जबकि असंयति पोषणता" यह नाम ही नहीं है तो इसके सम्बन्धमें भ्रमविध्वंसनकारसे कोई प्रश्न ही कैसे कर सकता है ? परन्तु अपने मनसे एक ऐसा प्रश्न वना कर जीतमलजीने जगतमें यह भ्रम फैलानेकी चेष्टा की है कि अनुकम्पणका समर्थन करनेवाले भी १५ वे कर्मादानका नाम “ असंयति पोषणता" मानते हैं। परन्तु जो लोग मूल पाठ न देख कर केवल ढालोंके आधारपर शास्त्रकी बात जानना चाहते हैं उन्हींपर यह कपट चल सकता है जो मूल पाठ देख कर पदार्थका निर्णय करना चाहते हैं वे इस धोखेमें नहीं आ सकते । पन्द्रहवें कर्मादानका असंयति पोषणता यह नाम ही नहीं है इस लिए हीन दीन दुःखी जीवोंपर दया लाकर दान देने वाले श्रावकोंपर १५ वे कर्मादानका आरोप करना एकान्त मिथ्या है।
आगे चल कर जीतमलजी लिखते हैं कि " आदिक शब्दमें तो सर्व असंयतिने रोजगाररे अर्थे राखे ते असंयति व्यापार कहिए" यहां बुद्धिमानोंको विचारना चाहिए कि जब पन्द्रहवें कर्मादानका नाम ही " असंयति पोषगता" है तब आदि शब्दसे असंयतियोंके ग्रहणकी क्या आवश्यकता है क्योंकि "असंयति पोषणता" इस नामसे ही सभी असंयतियोंका ग्रहण हो सकता है अतः निश्चय होता है कि जीतमलजीको भी पन्द्रहवें कर्मादानका नाम " असंयति पोषणता" यह स्वीकृत नहीं है इसीलिए वह आदि शब्दसे सभी असंयतियोंका ग्रहण होना बतलाते हैं। वह आदि शब्द भी न तो
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