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सद्धर्ममण्डनम् ।
उनके असंयम सेवनकी इच्छासे नहीं, उसको भी असंयम सेवनका अनुमोदन नहीं लगता किन्तु मरते हुए प्राणीकी प्राणरक्षा रूप महान् धर्मका लाभ होता है। अतः मरते प्राणीकी प्राणरक्षा करनेके लिये धर्मोपदेश देनेसे असंयम या हिंसाका समर्थन बतलाना निर्दय जीवोंका कार्य समझना चाहिये ।
(बोल छट्ठा समाप्त) (प्रेरक)
भ्रमविध्वंसनकार भ्रमविध्वंसन पृष्ठ १२७ पर लिखते हैं:-"अथ ईहां तो पाधरो कह्यो जे म्हारे कारण यां जीवांने हणे तो ए कारणज मोने परलोकमें कल्याणकारी भलो नहीं इम विचारी पाछा फिरया पिण जीवांने छुडाया चाल्यो नहीं” तथा पृष्ठ १२४ पर लिखा है कि "त्यां जीवांरे जीवणरे अर्थे तो नेमिनाथजी पाछा फिरथा नहीं। ए जो जीवांरी अनुकम्पा कही तेहनो न्याय इम छै जे माहरा व्याहरे वास्ते या जीवांने हणे तो मोने ए कार्य करवो नहीं इम विचारी पाछा फिरया" इत्यादि ।
इसका क्या समाधान ? (प्ररूपक)
उत्तराध्ययन सूत्रकी गाथाओंको टीकाके साथ लिख कर इसका समाधान दिया जाता है:
"सोऊण तस्स वयणं वहुपाणि विनासनं चिन्तेइ से महापन्ने सानुक्कोसो जिये हिउ । १८ जइ मज्झ कारणा एए हम्मन्ति सुवहु जिया नमे एयंतु निस्सेसं पर लोगे भविस्सइ । १९ सो कुण्डलाण जुगलं सुत्तगं च महा जसो आभरणानिच सव्वाणि सारहिस्स पणामइ” २०
(उत्तराध्यन अ० २२) ( टीका)
इत्थं सारथिनोक्ते यद्भगवान् विहित वास्तदाह सुगम मेव नवरं तस्य सारथः वहूनां प्रभूतानां प्राणानां प्राणिनां विनाशनं हननम् अभिधेयं यस्मिन् तद् बहुप्राणि विनाशनम् । सभगवान् सानुक्रोशः सकरुण: केषु “जीएहिउ" त्ति जीवेषु तुः पाद पूरणे मम कारणादिति मद्विवाह प्रयोजने भोजनार्थत्वादमीषामिति भावः । हम्मति हन्यन्ते
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