SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 228
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १७८ सद्धर्ममण्डनम् । समान विभाग करे । विभाग करते समय यह ध्यान रक्खे कि सभी हिस्से प्रायः समान ही हों। उस समय यदि कोई यह कहे कि हे आयुष्मन् श्रमण ! आप इसे न बांटें हम सब इसे साथ ही खा लेंगे तो साधु परतीर्थियोंके साथ भोजन न करे, अपने यूथके पार्श्वस्थ और संभोगिक साधुके साथ आलोचना लेकर खावे । खाते समय उन आहारों में साधु मूञ्छित न होवे और अच्छी अच्छी चीजें साथ खाने वालोंसे ज्यादा न खा जाय, समान ही खावे। यह इस पाठका टीकानुसार अर्थ है। यहां अपवाद मार्गमें दूसरे भिक्षुकोंके शामिलमें मिली हुई मिक्षाको बांट कर दे देना साधुके लिये कहा है इस लिये अपवाद मार्गमें साधु भी गृहस्थ और अन्य तीर्थी को देते हैं । जब कि साधु भी अपवाद मार्गमें अन्य तीर्थी और गृहस्थको देते हैं तब यदि कोई गृहस्थ किसी गृहस्थको दान देकर उसके धमकी रक्षा करे तो इसमें एकान्त पाप कैसे हो सकता है ? अतः निशीथ सूत्र उद्देशा १५ बोल ७८-७९ के मूल पाठका नाम लेकर गृहस्थको अनुकम्पा दान देनेमें एकान्त पाप बताना अज्ञानका परिणाम समझना चाहिये। (प्रेरक) भ्रमविध्वंसन कार भ्रमविध्वंसन पृष्ठ १०३ के ऊपर लिखते हैं "इण निशीथने पनरमें उद्देशे एहवा पाठ कया छै- “जेभिक्खू सचिरी अम्वं भुजइ भुजंतं वा साइज्जई" इहां कयो सचित्त आंवो भोगवे भोगवताने अनुमोद्य तो प्रायश्चित्त आवे । जो साधु भोगवतो हुवे तेहने अनुमोदनो नहीं तो गृहस्थ आंवो भोगवे तेहने साधु किम अनुमोदे जो गृहस्थरा दानने साधु अनुमोदे तो तिणरे लेखे आंवो गृहस्थभोगवे तेहने पिण अनुमोदणो" (भू० पृ० १०३) इसका क्या समाधान ? (प्ररूपक) आम्र फल वाले पाठके दृष्टान्तसे गृहस्थके दानको एकान्त पापमें स्थापन करना मिथ्या है । सचित्त आम्रके खाने में प्रत्यक्ष जीव हिंसा होती है इस लिये साधु उसका अनुमोदन नहीं कर सकते चाहे गृहस्थ सचित्त आम्र खावे या साधु खावे साधु दोनों ही को बुरा जानते हैं परन्तु यह बात गृहस्थके दानमें नहीं घटती । गृहस्थ यदि किसी गृहस्थ पर अनुकम्पा करके अचित्त अन्न और अचित्त दधि आदि पदार्थ देवे तो उसमें कौनसी जीवहिंसा होती है जिससे साधु उस अनुकम्पाका अनुमोदन न करे। साधु हिंसाका अनुमोदन नहीं करते अनुकम्पाका अनुमोदन करते हैं अतः सचित्त आम्र फल वाले पाठका Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034599
Book TitleSaddharm Mandanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Maharaj
PublisherTansukhdas Fusraj Duggad
Publication Year1932
Total Pages562
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy