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अनुकम्पाधिकारः ।
( प्ररूपक )
दशवैकालिक सूत्रकी गाथाका नाम लेकर मरते जीवकी रक्षा करनेमें पाप कहना एकान्त मिथ्या है। यह बात इस गाथासे किसी प्रकार भी नहीं सिद्ध होती, देखिये वह गाथा यह है:
"देवाणं मणुयाणञ्च तिरियाणंच बुग्गहे अमुयाणं जयो होउ : मावा होउत्तिणोवए,, ( दशवैकालिक सूत्र अ० ७ गाथा ५० )
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अर्थ:
देवता, मनुष्य और तिर्य्यञ्चोंके परस्पर युद्ध होने पर अमुककी जीत हो और अमुककी जीत न हो यह साधुको नहीं कहना चाहिये ।
यहां देवता मनुष्य और तिर्य्य चोंके युद्ध होने पर किसी एक पक्षकी हार या जीत कहनेका निषेध किया गया है क्योंकि साधुको मध्यस्थ भाव रखना ही शास्त्र सम्मत है किसी एक पक्षका श्रेय और दूसरे पक्षका अहित चाहना उचित नहीं है इस लिये दो दलों में युद्ध होने पर एक दलकी जीत और दूसरे दलको हार होनेकी बात कहना साधुको उचित नहीं है । ऐसे समयमें, जब कि दोनों दल वाले लड़ रहे हों साधु समझा बुझाकर युद्ध बन्द करादे और युद्धमें मारे जाने वाले जीवोंकी रक्षा करे तो उसका इस
में निषेध नहीं है एक दलके पक्षपात करनेका और दूसरे पर द्वेष करने का यहां निषेध है इस लिये इस गाथा का नाम लेकर जीवरक्षा करनेमें पाप बतलाना अज्ञान का परिणाम है ।
मारे जाते हुए चूहे
पर राग करना है,
इसी गाथाका नाम लेकर जीतमलजी कहते हैं कि “बिल्लीसे की रक्षा करना एकान्त पाप है क्योंकि यह बिल्ली पर द्वेष और चूहे तथा बिल्लीकी हार और चूहेकी जीत कराना है" परन्तु यह इनका अज्ञान है । बिल्लीसे मारे जाते हुए चूहेकी रक्षा करना चूहेकी अनुकम्पा करना है अनुकम्पा करना पाप नहीं fog धर्म है और यह बिल्ली पर द्वेष करना नहीं है क्योंकि जो बिल्ली चूहे को मारना चाहती है उसी बिल्ली को यदि कोई कुत्ता आदि मारना चाहे तो दयालु पुरुष, कुत्ते से उस बिल्लीकी भी रक्षा करता है यदि बिल्ली पर उसका द्वेष होता तो वह कुत्ते से बिल्ली को क्यों बचाता ?
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इसके सिवाय बिल्लीसे चूहेकी रक्षा करना बिल्लीकी हार और चूहेकी जीत कराना नही है क्योंकि हार और जीत का व्यवहार युद्धमें होता है परन्तु चूहेके साथ बिल्लीका
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