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सद्धममण्डनम् ।
भोजन कगनेसे ही पाप होना सिद्ध होता है अतः आर्द्र कुमार मुनिका नाम लेकर अनुकम्पा दान देने और ब्राह्मग मात्रको भोजन करानेसे नरक बतलाना सूत्रार्थ न जानने वालोंका काय्य है।
वैडाल तिक हिंसक नीच वृत्ति करने वाले ब्राह्मगोंको भोजन करानेसे मन्वादि धर्म शास्त्रोंमें भी नरक जना कहा है। इस विषयमें मनुजीके निम्नलिखित पद्य है
"धर्म ध्वजी सदा लुब्धः छाभिको लोक दम्भकः । वैडाल व्रतिको ज्ञयो हिंस्रः सर्वाभिसंधकः ॥ ९५ अधो दृष्टि नैष्कृतिकः स्वार्थसाधन तत्परः। शठो मिथ्या विनीतश्च बकब्रतचरो द्विजः ॥ ९६ ये वकवतिनो विप्राः येच मार्जार लिङ्गिनः । ते पतन्त्यन्धतामिस्र तेन पापेन कर्मणा ॥ ९७ न वार्यापि प्रयच्छेत्तु वैडालव्रतिके द्विजे । न बकवतिके निप्र नावेद निदि धर्मवित् ॥ विष्याप्येतेषुदत्तंहि निधिनाप्यर्जितं धनम् । दातुर्भवत्यनर्थाय परत्रादातुरेवच । यथा प्लवे नौपलेन निमज्जत्युदके तरन् । तथा निमज्जतोऽधस्ता दज्ञौ दातृ प्रतीच्छकौ ॥"
(मनुस्मृति अ० ४) अर्थ
जो धर्मात्माओंका चिन्ह धारण करके अपनेको धार्मिक प्रसिद्ध करता है और छिप कर पापाचरण करता है वह धर्मध्वजी कहलाता है। जो ब्राह्मग धर्मध्वजी है जो दूसरेके धन हरण करनेकी ताकमें सदा लगा रहता है जो छली कपटी लोकवञ्चक और हिंसक है जो सबकी निन्दा करता है उसको “वैडालबतिक " कहते हैं।
जो अपनी बनावटी नम्रताको प्रकट करनेके लिए दृष्टि, नीचे रखता है और निष्ठुरताके साथ दूसरेका स्वार्थ बिगाड़ कर अपना स्वार्थ साधन करता है जो शठ है और कपटयुक्त नम्रता धारण करता है वह ब्राह्मण "वकबतिक" कहलाता है।
चकवतिक और वैडाल बतिक ब्राह्मग, अपने पाप कर्मका फल भोगनेके लिए अन्धतामिस्र संज्ञक नरकमें जाते हैं।
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