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________________ दानाधिकारः। १८९ वक बतिक और वैढालबतिक ब्राह्मणको जल देना भी धार्मिक मनुष्योंका कर्तव्य नहीं है। जो वेद नहीं जनता उसको भी दान देना धार्मिक मनुष्यों के लिये अयोग्य है। न्यायवृत्तिसे उपार्जन किया हुआ भी धन, वकवतिक और वैडाल बतिक ब्राह्मणको दिया हुआ परलोकमें दाता और ग्रहीता ( लेनेवाला) दोनोंका अनर्थके लिये होता है। जैसे पत्थरकी नावपर चढ़ा हुआ मनुष्य उस नावके साथ ही दूब जाता है उसी तरह दान और प्रतिग्रहकी विधि न जानने वाले दाता और ग्रहीता ( लेनेवाला) दोनों ही नरक में जाते हैं। यहां मनुजीने भी दयारहित हिंसक वैडालतिक ब्राह्मणोंको भोजन करानेसे नरक जाना कहा है और इन्हों ब्राह्मगोंको भोजन करानेसे मुनि आद्र कुमारने भी नरक प्राप्ति बताई है इसलिये आद्र कुमार मुनिका नाम लेकर अनुकम्पादान देने और ब्राह्मगमात्रको भोजन करानेसे नरक प्राप्ति बतलाना मिथ्यावादियोंका कार्य है। (बोल छट्ठा) (प्रेरक) भ्रमविध्वंसनकार भ्रमविध्वंसन पृष्ट ६८ पर लिखते हैं “अथ इहां भग्गुने पुत्रां कह्यो वेद भण्यां त्राण न होवे ब्राह्मण जीमायां तमतमा जाय तमतमा ते अन्धेरा में अंधेरा ते एहवी नरकमें जाय इम कयो जो विप्र जीमायां पुण्य कहे तो नरक क्यूं कही" (भ्र० पृ०६८) इसका क्या समाधान ? (प्ररूपक) __भृगु पुरोहितके पुत्रोंका नाम लेकर अनुकम्पादानमें पाप बताना मूखों का कार्य है। भृगुके पुत्रोंने अनुकम्पा दान देने में पाप होना नहीं कहा था किन्तु यज्ञ यागादि कर के पूज्य बुद्धिसे ब्राह्मण भोजन कराने, और पुत्रोत्पादन करनेसे जो लोग दुर्गतिमार्गका निरोध होना मानते हैं उनके मन्तव्यको मिथ्या बतलाया था। यदि कोई कहे कि अनुकम्पा करके असंयतिको दान देनेसे पुण्य होता तो भृगुके पुत्रोंने ब्राह्मण भोजन करानेसे तमतमा जाना क्यों कहा ? तो इसका उत्तर यह है। यहां टीकाकारने लिखा है किः तेहि भोजिता: कुमागे प्ररूपण पशुवधादावेव कर्मोपचयनिबन्धनेऽसव्यापार प्रवर्तन्त इत्यसत्प्रवर्तनतस्तदोजनस्य नरक गति हेतुत्वमेव" अर्थात् हिंसामय धमकी प्रशंसा और दयामय धर्मकी निंदा करने वाले ब्राह्मग, भोजन कराये हुए कुमागेकी प्ररूपणा और कर्मको बढाने वाले पशुवध आदि असद् व्यापारमें ही प्रवृत्त होते हैं अत: असद् व्यापारमें प्रवृत्त होनेके कारण उनको भोजन कराना नरक प्राप्तिका हेतु होता है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034599
Book TitleSaddharm Mandanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Maharaj
PublisherTansukhdas Fusraj Duggad
Publication Year1932
Total Pages562
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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