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सद्धममण्डनम् ।
यहां टीकाकारने जो ब्राह्मण असद् व्यापारमें प्रवृत्त होता है उसीके भोजन कराने से नरक जाना कहा है परन्तु पशुवध आदि नीच कर्मोंका समर्थन न करनेवाले दयालु ब्राह्मणों को भोजन करानेसे नरक जाना नही कहा है इसलिये मूलगाथामें जो ब्राह्मण भोजन कराने से तमतमा जाना कहा है उसका अभिप्राय सब ब्राह्मणोंके भोजन करानेसे नहीं है किंतु दया रहित हिंसक ब्राह्मणको भोजन करानेसे है अतः भृगुके पुत्रोंका नाम लेकर अनुकम्पादानका विरोध करना मिथ्या है। हिंसक छली कपटी वक व्रतिक आदि ब्राह्मणों को भोजन करानेसे नरक जाना मनुने भी लिखा है और वही बात भृगुके पुत्रोंने कही है इसलिये अनुकम्पादानका खण्डन करना अयुक्त है ।
( बोल ७ वां )
( प्रेरक )
भ्रमविध्वंसनकार भ्रम० पृ० ७३ पर सुयगडांग सूत्र श्रु० २ अ०५ गाथा ३३ वीं को लिख कर उसकी समालोचना करते हुए लिखते हैं:
"अथ ईहां पि इम को दान देवे लेवे इसो वर्तमान देखि दूषण नहीं कहे । ए तो प्रत्यक्ष पाठ को जे लेवे देवे ते बेलां पाप पुण्य नहीं कहिणो । दक्खिणाए कहितां दाननो पंडिलंभ कहितां आगलाने देवो ते प्राप्ति एतले दान देवे ते दाननी आगलाने प्राप्ति हुवे ते बलां पुण्य पाप कहिगो वर्ज्यो पिग और वेलां वज्यों नहीं" इत्यादि इनके कहने का तात्प यह है कि जिस समय दाता अनुकम्पा लाकर किसी हीन दीनको दान दे रहा है और वह हीन दीन ले रहा है उस समय साधुको उस दानमें एकान्त पाप न कहना चाहिये परन्तु दूसरे समय में अनुकम्पादानका फल एकान्त पाप कह कर उसका निषेध कर देना चाहिये। इसका क्या समाधान ?
(प्ररूपक
सुयगडांग सूत्रकी वह गाथा, टीकाके साथ लिख कर इसका समाधान किया जाता है । वह गाथा यह है:
"दक्खिणाए पडिलं भो अत्थिवा णत्थिवा पुणो वियागरेज्ज मेहावी संति मग्गंच बूहए"
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( सुय० श्रु० २ अ०५ गाथा ३३ )
( टीका )
दानं दक्षिणा तस्याः प्रतिलंभ: प्राप्तिः स दानलाभोऽस्माद् गृहस्थादेः सकाशा दस्ति नास्तिवा इत्येवं न व्यागुणीयात् मेधावी मर्यादाव्यवस्थितः यदिवा स्वयूथ्यस्य तीर्था
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