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________________ विनयाधिकारः। ३८९ धर्मार्थ नहीं' शास्त्र के अन्दर कहीं भी अपनेसे अधिक गुणवान श्रावकको वन्दन नमस्कार करनेका निषेध नहीं है प्रत्युत श्रेष्ठ श्रावकको वन्दन करनेकी शास्त्रमें प्रशंसा की गई है। अतः अधिक गुणवान श्रावक के प्रति श्रावक के विनय को सावध कायम करना अज्ञान है। यदि सभी शुश्रूषा विनय साधुका ही किया जाना धर्मका हेतु है तो फिर श्रावक लोग कृतिकर्म, असनानुप्रदान, और आसनाभिग्रहरूप विनय किसका करें ? 'कृतिकर्मका अर्थ है अपनेसे श्रेष्ठ पुरुषका कार्य करना परन्तु साधु लोग किसी गृहस्थ से अपना कार्य नहीं कराते फिर यह विनय श्रावक किस का करें ? यह भ्रमविध्वंसनकार के शिष्योंसे पूछना चाहिये। __अपनेसे श्रेष्ठ पुरुषके आसनको उसकी इच्छानुसार अन्यत्र रखना आसनानुप्रदान विनय है और अपनेसे श्रेष्ठ पुरुषको बैठनेके लिये आसन देना आसनाभिग्रह रूप विनय है परन्तु साधु लोग गृहस्थ से अपना आसन अन्यत्र नहीं रखवाते और गृहस्थ के दिये हुए आसन पर बैठते भी नहीं हैं । ऐसी दशामें श्रावक इन विनयों का व्यवहार किसके साथ करे ? यह भी भ्रमविध्वंसनकारके अनुयायियोंसे पूछना चाहिये । लाचार होकर उन्हें यह कहना ही होगा कि ये विनय श्रावकोंके साथ ही श्रावक करते हैं परन्तु साधुके साथ नहीं। . कदाचित् कोई यह कहे कि “उक्त सभी शुश्रूषा विनय श्रावकोंके नहीं हैं इसलिये श्रावक को यदि कृति कर्म, आसनानप्रदान, तथा आसनाभिग्रह रूप विनय करने का प्रसङ्ग नहीं आता तो इसमें कोई आपत्ति नहीं है तो इसका उत्तर यह है कि भंगवती सूत्र शतक १४ उद्देशा ३ में आसनानुप्रदान और आसनाभिप्रह रूप विनयको छोड़ कर शेष सभी विनयोंका सद्भाव तियेच श्रावकोंमें भी बतलाया है और मनुष्य श्रावकों में तो सभी विनयोंका सद्भाव कहा है। अतः मनुष्य श्रावकोंमें सभी शुश्रूषा विनयों का सद्भाव नहीं मानना शास्त्र से विरुद्ध है। श्रावक लोग अपनेसे श्रेष्ठ श्रावक के ओ कार्य कर देते हैं वह उनका कृतिकर्म रूप विनय है और उनके आसनको उनकी इच्छानुसार अलग रखना आसनानुप्रदान रूप विनय है और उन्हें बैठनेको आसन देना आसनाभिग्रहरूप विनय है। यह मिर्जराका हेतु है। इसे पाप कहना उत्सुत्रभाषियोंका कार्य समझना चाहिये। - . भगवती सुत्र शतक १४ उद्देशा ३ में मनुष्य श्रावकोंमें सभी विनयों का और तिर्यंच पञ्चेन्द्रिय श्रावकोंमें आसनानुप्रदान और आसनाभिप्रहको छोड़ कर शेष सभी विनयोंका सदभाव बतलाया है वह पाठ यह है Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034599
Book TitleSaddharm Mandanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Maharaj
PublisherTansukhdas Fusraj Duggad
Publication Year1932
Total Pages562
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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