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- आश्रवाधिकारः। पदार्थोका नौ भेद किया है इसमें कोई दोष नहीं है। वास्तवमें पदार्थ जीव और अजीव दो ही हैं।
यहां टीकाकारने आश्रवके विषयमें लिखा है कि "सचात्मानं पुद्गलांश्च विरहय्य कोऽन्यः" अर्थात् वह आश्रव आत्मा और पुद्गलोंको छोड़कर अन्य क्या है ? अर्थात कुछ भी नहीं है । आश्रव, आत्मा और पुद्गल इन दोनोंका परिणाम स्वरूप ही है यह टीकाकारका आशय है इस लिये आश्रवको एकान्त जीव मानना इस टीकासे विरुद्ध समझना चाहिये । यद्यपि टीकाके इस पूर्वोक्त वाक्यके पहले आश्रवके सम्बन्धमें यह वाक्य आया है कि "आश्रवस्तु मिथ्यादर्शनादिरूपः परिणामो जीवस्य" तथापि इस वाक्यमें “परिणामो जीवस्य" इसमें दो तरहका सन्धि विच्छेद है-"परिणामः जीवस्य" परिणामः अजीवस्य" इन दोनों ही प्रकारका छेद करके आश्रवको जीव और अजीव दोनोंका परिणाम बताना टीकाकारको इष्ट है। यदि आश्रवको केवल जीवका ही परिणाम बताना इष्ट होता तो टीकाकार यह कैसे लिखते कि "सचात्मानं पुद्गलांश्च विरहय्य कोऽन्यः। अतः टीकाकारका "परिणामो जीवस्य” इसमें पूर्वोक्त गतिसे द्विविध सन्धिका विच्छेद करना तात्पर्य है। परन्तु जीतमलजीने भोले जीवोंको भ्रममें डालनेके लिये इस टीकाके "सचात्मानं पुद्गलांश्च विरहय्य कोऽन्यः इस वाक्यका अर्थ नहीं करके केवल "आश्रवस्तु मिथ्या दर्शनादिरूपः परिणामो जीवस्य इसीका अर्थ करके छोड़ दिया है और वह अर्थ भी "परिणामः जीवस्य" इस विच्छेदके अनुसार ही किया है “परिणामः अजीवस्य" इस विच्छेदके अनुसार नहीं किया है अतः माश्रवको एकान्त अजीव कहना उनका अज्ञान समझना चाहिये ।
बोल २२ वां समाप्त
(प्ररूपक)
भगवती सूत्र शतक ७ उद्देशा १ में पाठ आया है कि-"दुखी दुखेण फुडे नो अदुखी दुखेण फुडे' अर्थात् कर्मों से युक्त पुरुष ही कर्मका स्पर्श करता है परन्तु अकर्मा पुरुष, कर्मका स्पर्श नहीं करता" यदि अकर्मा ( कर्म रहित ) पुरुषको भी कर्मका स्पर्श हो तो सिद्धात्मा पुरुषों में भी कर्मका स्पर्श मानना पड़ेगा। परन्तु यह बात नहीं होती अतः निश्चित होता है कि कर्म भी कर्मके ग्रहण करनेमें कारण होनेसे आश्रव हैं। तथा भगवती में इस पाठके आगे यह पाठ आया है कि "दुखी दुखं परियायइ" अर्थात कर्मसे युक्त मनुष्य कर्मका ग्रहण करता है" इस पाठसे कर्मका आश्रव होना सिद्ध होता है। कर्म पौद्गलिक अजीव है इस लिये आश्रव, पौद्गलिक अजीव भी सिद्ध होता है उसे एकान्त जीव मानने वाले अज्ञानी हैं।
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