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सद्धममण्डनम् ।
इसके पहले के वोलमें ठाणाङ्ग सूत्रकी टीकाकी साक्षी देकर जो पाप, पुण्य और वन्धको अजीवमें, और संवर, मोक्ष तथा निर्जराको जीवमें एवं आश्रवको जीव ओर अजीव दोनों ही में गतार्थ पिया है वह निश्चय नयके अनुसार सम्झना चाहिये क्योंकि व्यवहारनय में पाप, पुण्य और बन्ध को आत्मा का परिणाम भी कहा है। वह पाठ यह है।
"अहभंते ! पाणाइवाए मुसावाए जावमिच्छादसणसल्ले, पाणाइवायवेरमणे जाव मिच्छादसणसल्लविवेगे उप्पत्तिया जाव परिणामिया उग्गहे जावधारणा उहाणे कम्मे वले वीरिए पुरिसकार परकमे णेरइयत्ते असुर कुमारत्ते जाव वेमाणियत्ते णाणावरणिज्जे जाव अन्तराइए कण्ह लेस्ला जाच सुक्कलेस्सा समदिटिए ३ चक्ख दसणे ४ ओरालिय सरीरे ५ मण जोगे ३ सागारोक्योगे जेयावष्णे तहप्पगारा सव्वेते णणस्थ आत्ताए परिणमन्ति ? हंता ! गोयमा ! पाणाइवाए जाव सवेते णणत्थ आत्ताए परिणमन्ति ।"
(भगवतो शतक २० उद्देशा ३) अर्थ:
हे भगवन् ! प्राणातिपात और मृपा वादसे लेकर मिथ्यादर्शन शल्य पर्यन्त, और प्राणातिपात घिरमणसे लेकर यावत् मिथ्या दर्शन शल्य विवेक पर्यन्त, औत्पातिकी यावत् परिणामिकी, अवग्रह यावत् धारणा, उत्थान, बल, वीर्य, कर्मा, पुरुषाकार पराक्रम, नैरयिकत्व, असुर कुमारत्व, यावत् वैमानिकत्व, ज्ञानावरणीय यावत् आन्तरायिक, कृष्ण लेश्या यावत् शुक्ल लेश्या, सम्यग्दृष्टि आदि
दि चार, आभिनिवोधिकादि पांच ज्ञान, यावत विभंग ज्ञान आहारादि चार संज्ञाए औदारिकादि पांच शरीर, मनोयोगादि तीन योग, साकार और अनाकारोपयोग ये सब पदार्थ क्या आत्माके ही परिणाम हैं ?
[उत्तर ] हा गोतम ! प्राणातिपातसे लेकर उक्त सभी बोल आत्माके ही परिणाम हैं दूसरोके नहीं।
__ इस पाठमें प्राणातिपातसे लेकर अनाकारोपयोग पर्यंत सभी आत्माके ही परिणाम कहे हैं इसलिये पुण्य पाप और बंध भी व्यवहारनय में जीव है इन्हें एकांत अजीव कहना अज्ञानका परिणाम है ।
बोल २३ वां समाप्त ( इति आश्रवाधिकारः समाप्तः)
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