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जीवाजीवादि पदाथ विचारः।
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यद्यपि छः भावलेश्या, मिथ्यादृष्टि, और चार संज्ञा आदि भी माश्रव हैं और वे अरूपी हैं तथापि मुख्यनयमें ये रूपी ही माने जाते हैं क्योंकि आश्रवको त्यागनेयोग्य कहा है और त्याग रूपी वस्तुका ही होता है इसलिये मुख्यनयमें आश्रव रूपी है अरूपी नहीं। आश्रव उदयमावमें माना गया है इसलिये परगुण होनेसे वह रूपी है अरूपी नहीं। मन, और भाषा, चतुःस्पर्शी और अष्टस्पशी माने गये हैं और वे भी आश्रव हैं इसलिये निश्चयनयमें आश्रव रूपी ही है अरूपी नहीं है। अठारह पापोंसे निवृत्त हो जाना संवर है वह अरूपी है। निर्जरा और मोक्ष आत्माके स्वाभाविक गुण हैं इसलिये अरूपी हैं। जीव, निश्चयनयसे निराकार और निरजन है इसलिये जीव, संवर, मोक्ष, और निर्जरा ये चार निश्चय नयमें अरूपी हैं। __अजीव पदार्थमें धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाश और काल ये चार अरूपी हैं और पुद्गल रूपी है इसलिये निश्चनयमें अजीव तत्त्व, रूपी और अरूपी दोनों ही प्रकारका है।
[बोल २ रा]
उक्त नौ ही पदार्थ किसी अपेक्षासे जीव माने जाते हैं। किसी अपेक्षा से एक जीव और आठ अजीव माने जाते है। किसी अपेक्षासे आठ जीव और एक अजीव माना जाता है। किसी अपेक्षासे चार जीव और पांच अजीव माने जाते हैं परन्तु मुख्यनयमें एक जीव, एक अजीव और शेष सात पदार्थ जीव और अजीव इन दोनोंके पर्याय माने जाते है।
इसका खुलासा इस प्रकार समझना चाहिये ।
जीव और अजीव आदि पदार्थों के वास्तविक स्वरूपको "तत्त्व" कहते हैं उसके ज्ञानका नाम तत्त्वज्ञान है वह तत्वज्ञान जीवरूप है इसलिये तत्वज्ञानकी अपेक्षासे नौ ही पदार्थ जीव माने जाते हैं। जैसे अनुयोग द्वार सूत्रमें शब्दादि तीन नयवालोंके मतमें मात्माके उपयोगको "पायली' कहा है और आत्माका उपयोग आत्मस्वरूप है इसलिये पायलीको भी आत्मा कहा है उसी तरह नवतत्वोंका जो उपयोग है वही नवतत्व है और वह उपयोग जीव है इसलिये शब्दादि तीन नयवालोंके मतमें नव ही तत्त्व जीव हैं।
किसी अपेक्षासे एक जीव और आठ पदार्थ अजीव हैं । एक तो अजीव पदार्थ स्वत: सिद्ध हो है बाकीके सात पदार्थों का द्रव्य, पुद्गल स्वरूप है इसलिये एक जीव और आठ पदार्थ अजीव हैं। .
(किसी अपेक्षासे एक अजीव और आठ जीव हैं)
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