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________________ ३९४ सद्धर्ममण्डनम् । - - जीको परिव्राजक कहा है उस समय अम्वडजीने परिव्राजक कर्मको छोड़ दिया था वे परिव्राजक धर्मका आचरण उस समय नहीं करते थे फिर उन्हें परिव्राजक ऐसा विशेषण लगा कर कहनेका कोई दूसरा कारण नहीं है। जैसे कोई गृहस्थ गृहस्थाश्रमको छोड़ कर साधु हो जाता है तो उसे साधु हो जानेपर गृहस्थ ऐसा विशेषण लगाकर नहीं कहते क्योंकि उस समय उसने गृहस्थाश्रमको छोड़कर साधुता ग्रहण कर ली है। उसी तरह अम्वडजी सन्यास धर्मको छोड़कर उस समय श्रमणोपासक हो गये थे फिर उस समय उन्हें परिव्राजक ऐसा विशेषण लगा कर बतलाना उचित नहीं हो सकता। अतः यह मानना होगा कि जिन धर्मके पूर्वोक्त महत्वको प्रकट करनेके लिये ही मूलपाठमें अम्वड जीको श्रमणोपासक नहीं कह कर परिव्राजक कह कर बतलाया है। अतः अम्बडजीके लिये परिव्राजक पदका प्रयोग होनेसे परिव्राजक धर्मके सम्बन्धसे अम्वडजीको नमस्कार करनेकी प्ररूपणा मिथ्या समझनी चाहिये ।। जिस समय श्रावक धर्मानुसार अम्वडजीके शिष्य संथारा ग्रहण कर रहे थे उस समय कुप्रावचनिक धर्मका उपकार मानकर कुप्रावचनिक धर्माचार्यको वे किस प्रकार नमस्कार कर सकते थे यह बुद्धिमानोंको विचारना चाहिये क्योंकि इस कार्गमें वही वन्दनीय पूजनीय हो सकता है जो इसका समर्थन करता हो परन्तु संथारा प्रहण करनेको बुरा बतलाने वाला कुमावचनिक धर्माचार्या संथारा ग्रहण करने वालोंको वन्दनीय और नमस्कार करने योग्य नहीं हो सकता है। इस लिये अम्वडजीके शिष्योंने बारह बन ग्रहण करानेका उपकार मान कर ही अम्वडजी को वन्दन नमस्कार किया था परिव्राजक धर्मका उपकार मानकर नहीं। तथा जिसमें ३६ गुण विद्यमान हों वही धर्माचार्य होता है यह कोई नियम नहीं है क्योंकि ठाणांग सूत्रके अन्दर कई आचार्य ऐसे भी कहे हैं जिनमें ३६ गुण नहीं पाये जाते तथापि शास्त्र उन्हें धर्माचार्या बतलाता है। ___ वह पाठ यह है "पव्वायणायरिये नाम मेगे नो उवठ्ठावणायरिए उवट्ठावणायरिए नाम मेगे नो पञ्चायणायरिए। एगे पव्वायणायरिएवि उवट्ठावणायरिए वि। एगे नोपव्यायणायरिए नो उवठ्ठावणायरिए घम्मायरिए" "चत्तारि आयरिया पन्नत्ता तंजहा उद्देसनायरिए नाम मेगे नो वायणयरिए धम्मा यरिए। चत्तारि अन्तेवासो पं० तं० पवाय Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034599
Book TitleSaddharm Mandanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Maharaj
PublisherTansukhdas Fusraj Duggad
Publication Year1932
Total Pages562
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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