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________________ २४४ सद्धर्ममण्डनम् । वस्तुत: इस गाथामें वर्जित की हुई सात बाते सम्पूर्ण रूपसे जिन कल्पीके लिये, और अपनी कल्प मर्यादानुसार कई बाते स्थविर कल्पीके लिये समझनी चाहिये । ये सात ही बातें स्थविर कल्पीके लिये वर्जित नहीं हैं क्योंकि स्थविर कल्पी साधु रोगी साधुको रोग निवृत्त्यर्थ औषध आदि भी देते हैं और पानीमें डूबती हुई साध्वीको जल से बाहर निकाल कर उसका उपसर्ग भी दूर करते हैं तथा उपदेश देकर जनताके उपद्रव और उपसर्गको निवृत्त करते हैं साक्षात् भगवान महावीर स्वामी त्रस और स्थावर प्राणियोंका क्षेमके लिये उपदेश दिया करते थे। सुय० श्रु. २ अ० ६ गाथा ४ में लिखा है क “समिच्च लोगं तसथावराणं खेमंकरे समणे माहणेवा" अर्थात् भगवान् महावीर स्वामी, त्रस और स्थावर सम्पूर्ण प्राणियोंका क्षेमके लिये उपदेश देते थे। यदि दशवैकालिक सूत्र की उक्त गाथानुसार साधुको क्षेम की प्रार्थना करना बुग होता तो भगवान् त्रस और स्थावरका क्षेम करनेके लिये उपदेश क्यों देते ? अतः दशवैकालिक सूत्रकी उक्तगाथामें जो सात बातें वर्जित कीहैं वे सम्पूणरूपसे जिन कल्पीके लिये और कई बाते स्थविर कल्पीके लिये समझनी चाहिये । अतएव इस गाथामें उपसर्ग दूर करने और रोग निवृत्ति करनेकी प्रार्थना वर्जित होने पर भी स्थविर कल्पी साधु रोगी साधु की रोग निवृत्तिके लिये औषध आदि देते हैं और पानीमें डूबती हुई साध्वीको निकाल कर उसका उपसर्ग दूर करते हैं । अत: उक्त गाथामें कही हुई सात ही बातोंको स्थविर कल्पीके लिए भी बतलाना मिथ्या है। इस गाथामें आये हुए "क्षेम" शब्दका टीकाकारने "राज विज्वर शून्यम्" ऐसा अर्थ किया है यानी राज रोगका अभाव होना "क्षेम" है परन्तु जीतमलजीने “राजविज्वर शून्यम्" का अर्थ नहीं समझा है अतएव उन्होंने लिखा है कि "राजादिकना कलह रहित हुवे ते क्षेम" यह अर्थ मिथ्या है अत: किसी प्राणीको उपद्रव रहित करनेमें पाप बतलाना अज्ञानका परिणाम समझना चाहिये । स्वयं भ्रमविध्वंसनकारने भी दूसरी जगह पर उपसर्ग निवारण करना साधुका कत्त व्य बतलाया है। उन्होने भ्र० वि० पृ० १४९ पर लिखा है कि “धर्मनी चोयणा करीने परने उपदेशे जिम अनुकूल प्रतिकूल उपसर्ग कर्ताने वारे" इस लेखमें जीतमलजीने उपसर्ग निवारण करना साफ साफ साधुका कर्तव्य माना है तथापि दुराग्रहमें पड़ कर अपने कथनसे ही विरुद्ध यहां उन्होंने उपसर्ग निवारण करनेको दोष बतलाया है इस प्रकार अपने कथनसे ही विरुद्ध बोलने वालेकी बातमें आकर सच्चे धर्मका तिरस्कार करना बुद्धिमान् पुरुषोंका कार्य नहीं है। (बोल १९ समाप्त) Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034599
Book TitleSaddharm Mandanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Maharaj
PublisherTansukhdas Fusraj Duggad
Publication Year1932
Total Pages562
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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