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________________ मिथ्वात्विक्रियाधिकारः। “जो पुरुष माया मादि यानी कषायोंसे युक्त कह कर बतलाया जाता है।" यह है। वह पुरुष मिथ्यादृष्टि है उस मिथ्यादृष्टि का निर्देश करनेके लिए इस गाथामें "जे इह मायार मिज्जा" यह वाक्य आया है। अतः इस वाक्यका आश्रय लेकर मायाके कारण संसारका अन्त न होना बतला कर मिथ्यादृष्टिकी तपस्याको मोक्षमार्गमें कायम करना अज्ञान मूलक है। यदि मायाके कारण अनन्त कालतक गर्भवास भोगना पड़े तो दशम गुण स्थान सकके जीवोंका भी अनन्त कालतक गर्भवास भोगना मानना चाहिए। क्योंकि शामा दशमगुण स्थान पर्य्यन्त कषायका होना बतलाया है परन्तु यह शाखा विरुद्ध विहार गुणस्थानवाले जीव कदापि अनन्त संसारी नहीं होते। अतः इस गाथाका नाम लेकर मायाके कारण अनन्त कालतक गर्भवास भोगनेकी कल्पना करके मिथ्यादृष्टिकी तपस्याको जिनोक्त मोक्षमार्गमें कायम करना अज्ञानका परिणाम है। __चतुर्थ गुणस्थानवाले अबती सम्यग्दृष्टिकी तरह अकाम निर्जराकी क्रिया करने वाले पुरुषको मोक्षमार्गका आराधक कहना भी मिथ्या है । अव्रती सम्यग्दृष्टिमें ज्ञान दर्शन रूप मोक्षका मार्ग है और वह असंख्य भवमें मोक्ष भी जाता है पर अकाम निर्जरा की क्रिया करनेवाले पुरुषमें ज्ञानदर्शन तथा चारित्र रूष मोक्षमार्गका कोई भी अंश पाही है और वह अनन्त कालतक संसारमें ही भ्रमण करता है इस लिये अव्रती सम्यग्दृष्टिकी तरह अकाम निर्जराकी क्रिया करने वालेको मोक्षमार्गका आराधक बतलाना एकान्त मिथ्या है। बोल २४ वां) (प्रेरक) भ्रमविध्वंसनकार भ्रमविध्वंसन पृष्ठ १९ के ऊपर भगवती सूत्र शतक ७ उद्देशा २ का मूलपाठ लिख कर उसकी समालोचना करते हुए लिखते हैं कि "तथा वली मिथ्यात्वी त्रस जाणने त्रसहणवारा त्याग करे तेहने संवर न होवे ते मांटे दुप्पचक्खाण कहीजे । पञ्चक्खाण नाम संवर नो छै । तेहने संवर नहीं ते भणी तेहना पञ्चक्खाण दुप्पच्चक्खाण छै पिण निर्जरा तो शुद्ध छै ते निर्जरारे लेखे निर्मल पञ्चक्वाण छै" (भ्र० पृ० १९) इसका क्या समाधान ? (प्ररूपक) भगवती सूत्रका वह पाठ लिख कर इसका समाधान किया जाता है। वह पाठ निम्नलिखित है Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034599
Book TitleSaddharm Mandanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Maharaj
PublisherTansukhdas Fusraj Duggad
Publication Year1932
Total Pages562
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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