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अनुकम्पाधिकारः ।
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तथापि यदि कोई हठ करके "वेयावडियठ्ठयाए” यह पाठ देख कर मारने को ही व्यावच कहे तो फिर उसे वन्दनके निमित्त किया जाने वाला वैक्रिय समुद्रघातको भी वन्दन स्वरूप ही मानना पड़ेगा और भगवान्का वन्दन भी वैक्रिय समुद्घात स्वरूप होने कहना पड़ेगा | परन्तु वैक्रिय समुद्घातको यदि वन्दन स्वरूप नहीं मान कर उसे वन्दनसे भिन्न मानते हो तो उसी तरह व्यावचको भी मारनेसे भिन्न ही मानना पड़ेगा एक नहीं मान सकते ।
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उत्तराध्ययन सूत्रकी गाथामें भी मुनिने ब्राह्मणोंसे यही कहा है कि "यक्ष मेरा व्यावच करते हैं' परन्तु यक्षोंने जो ब्राह्मण कुमारों को मारा था उसे ही मुनिने अपना व्यावच नहीं कहा था । देखिये, उत्तराध्ययनकी गाथा यह है:
“पुव्विंच इहिंच अनागयंच मनप्पदोसो नमे अत्थिकोई । क्खाहु वेयावडियं करेति तम्हाहु ए ए निहया कुमारा" ( उत्तरा० अ० १२ गाथा ३२ )
अर्थात् आप लोगोंके प्रति मेरे मनमें न कभी द्वेष था और न है और न होगा । यक्ष मेरा व्यावच करते हैं इसलिये ये लड़के मारे गये हैं। यह उक्त गाथा अर्थ है ।
यहां मुनिने यही कहा है कि यक्ष मेरा व्यावच करते हैं परन्तु यज्ञोंने जो air कुमारों को मारा है यह मेरा व्यावच है ऐसा नहीं कहा, इसलिये मारने को ही व्यावच मानना अज्ञान है ।
यद्यपि यक्षोंने मुनिका व्यावच करनेके लिये ही ब्राह्मग कुमारोंका ताडन किया था तथापि जैसे तीर्थङ्करकी वन्दनाके लिये देवताओंसे किया हुआ वैक्रिय समुद्घात वन्दनसे भिन्न है उसी तरह मुनिका व्यावचके लिये किया हुआ ब्राह्मग कुमारों का ताडन भी व्यावचसे भिन्न है । आज कल भी श्रावक लोग मुनियोंका दर्शन करनेके लिये रेलगाड़ी घोड़ा गाड़ी मोटर गाड़ी आदि विविध बाहनों में बैठ कर दूर दूरसे मुनियोंके पास आते हैं । उनका आना मुनियोंका वन्दनके लिये ही होता है परन्तु जैसे आने जाने रूप क्रिया मुनिका वन्दन भिन्न है उसी तरह हरि केशी मुनिका व्यावचके लिये यक्षोंके द्वारा ब्रह्म कुमारोंका ताडन भी व्यावचसे भिन्न है अतः मुनिके वन्दनके समान ही मुनिका व्यावच भी निरवद्य है सावद्य नहीं है ।
यदि कोई कहे कि “मुनिका वन्दन तो अपने लिये किया जाता है परन्तु व्यावच अपने लिये नहीं मुनिके लिये किया जाता है इस लिये व्यावच और वन्दन दोनों समान नहीं हैं" तो उसे कहना चाहिये कि व्यावच भी वन्दनके समान अपने लिये ही किया जाता है और उस व्यावचसे जो निर्जरा होती है वह भी व्यावच करनेवाले को ही
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