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सधममण्डनम् ।
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भक्तिका सावध होना कारण नहीं बतलाया है अत: नाटकको भक्ति मान कर उसकी आज्ञा न देनेसे वीतरागकी भक्तिको सावध कायम करना अज्ञानका परिणाम है। यदि नाटक भक्तिस्वरूप होता तो मूलपाठमें "भक्ति पूवर्ग" यह पाठ न होकर "भत्ति रूवं" यह पाठ आता और टीकाकार नाटककी आज्ञा न देनेका कारण भक्तिका सावध होना बतलाते परन्तु टीकाकारने भक्तिको सावद्य नहीं कहा है और मूलपाठमें नाटकको भक्तिरूप नहीं कहा है अतः राजप्रश्नीय सूत्रके उक्त मूलपाठके आधार पर वीतरागकी भक्तिको सावध कहना अज्ञानका परिणाम है।
(बोल ३५ वां समाप्त)
(प्रेरक)
भ्रमविध्वंसनकार भ्रमविध्वंसन पृष्ठ १७६ पर उत्तराध्ययन सूत्र अध्ययन १२ के ३२ वीं गाथाको लिख कर उसकी समालोचना करते हुए लिखते हैं कि -
"अथ अठे हरिकेशी कह्यो ए छात्राने हण्या ते यक्षे व्यावच की धी छै पर म्हारो दोष तीन ही कालमें न थी इहां व्यावच कही ते सावध छै आज्ञा वाहिरे छै अने हरि केशी मुनिने अशनादिक दान रूप जे व्यावच ते निरवद्य छै तिम अनुकम्पा पिण सावद्य निरवद्य छै" (भ्र० पृ० १७६)
इसका क्या समाधान ? (प्ररूपक)
यक्षने ब्राह्मण कुमारोंको जो मारा था उसे मुनिका व्यावच कहना मिथ्या है क्योंकि व्यावच दूसरी वस्तु है और मारना दूसरा है। मारना ही व्यावच नहीं है अतएव गाथामें कहा है कि
"इसिस्स वेयावडियट्ठयाए जक्खा कुमारे विणिवारयन्ति" अर्थात् ऋषिका व्यावच करनेके लिये यक्ष, ब्राह्मण कुमारोंका निवारण करने लगे।
यहां व्यावचके लिये मारना कहा है परन्तु मारनेको ही व्यावच नहीं कहा है इस लिये मारनेको ही व्यावच बतलाना मिथ्या है। जैसे भगवान महावीर स्वामीका वन्दन करनेके लिये जहां देवताओंने वैक्रिय समुद्घात किया है वहां “वन्दन वत्तियाए" यह पाठ आया है उसी तरह यहां भी "वेयावडियठ्याए" यह पाठ आया है अतः जैसे भगवान का वन्दन करनेके लिये देवताओंसे किया हुआ वैक्रिय समुद्घात वन्दन स्वरूप नहीं किन्तु उससे भिन्न है उसी तरह मुनिका व्यावचके लिये यक्षोंसे किया हुआ ब्राह्मण कुमारोंका ताड़न भी व्यावच स्वरूप नहीं किंतु उससे भिन्न है ।
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