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अनुकम्पाधिकारः।
___ २८१ वीर स्वामीने सूर्याभके कथनका आदर नहीं किया । अनुमोदन भी नहीं किया किन्तु मौन धारण कर लिया। यह ऊपर लिखे हुए पाठका अर्थ है।
___ इस पाठमें सूर्याभने भक्तिपूर्वक नाटक दिखानेकी बात कही है भक्ति को ही नाटक नहीं कहा है यदि नाटक ही भक्ति होता तो इस पाटमें “भति पुवर्ग" की जगह "भत्ति रूपं" ऐसा नाटकका विशेषग आता परन्तु वह नहीं होकर जो यहां "भत्ति पुब्वगं" यह पाठ आया है इससे स्पष्ट सिद्ध होता है कि नाटक दूसरी चीज है और भगवानकी भक्ति दूसरी है, ये दोनों एक नहीं हैं। वीतरागमें परमानुराग रखना वीतरागकी भक्ति है और वेष भाषा और भूषाके द्वारा किसी उत्तम पुरुषका अनुकरण करना नाटक है। ये दोनों भिन्न पदार्थ हैं एक नहीं हैं। नाटकके आरम्भमें विन निवारणके लिये नट लोग भगवान की भक्ति करते हैं यदि नाटक ही स्वयं भक्ति स्वरूप होता तो नाटकके पूर्व में भक्ति करने की क्या आवश्यकता थी। रागादिवासनाके उदयसे नाटक किया और देखा जाता है परन्तु वीतरागकी भक्ति, रागके क्षयोपशम आदि होनेसे की जाती है इसलिये भगवद्भक्ति और नाटक दोनों एक पदार्थ नहीं हैं। भगवान्ने भक्ति करनेकी आज्ञा दी थी परन्तु नाटककी आज्ञा नहीं दी इसलिये भक्ति और नाटक भिन्न भिन्न पदार्थ हैं एक नहीं हैं। अतः नाटकका ही भक्ति कायम करके उसे सावध सिद्ध करनेकी चेष्टा करना अज्ञान है।
इस पाठकी टीकामें टीकाकारने लिखा है कि नाटक स्वाध्याय का विघातक है और भगवान् महावीर स्वामी वीतराग थे इसलिये भगवानने नाटक करनेको आज्ञा नहीं दी। यदि नाटक ही भक्ति होता तो टीकाकार स्पष्ट लिख देते कि नाटकरूप भक्ति सावध है इसलिये भगवान्ने उसकी आज्ञा नहीं दी थी। देखिये वह टीका यह है
___ततः श्रमणो भगवान् सूर्याभेग एवमुक्तः सन् सूर्याभस्य देवस्यैन मनंतरो दितमर्थ नाद्रियते नतदर्शकरणायादरपरोभवति नापि परिजानाति, अनुमन्यते स्वतो वीतरागत्वात् गोतमादीनांच नाट्य विधेः स्वाध्यायादि विघात कारित्वात् । केवलं तुष्गीकोऽवतिष्ठते"।
अर्थात् सूर्याभदेवके इस प्रकार कहने पर भगवान महावीर स्वामीने उसके कथनका आदर नहीं किया और उसका अनुमोदन भी नहीं किया। भगवान स्वयं वीतराग थे और नाटक गोतमादि मुनियोंके स्वाध्यायका विघातक था। अतः भगवान इस विषयमें मौन रहे।
यहां टीकाकारने नाटककी आज्ञा न देनेका कारण भगवान का वीतराग होना, और नाटकका गोतमादिके स्वाध्यायका विघातक होना बतलाया है परन्तु वीतराग की
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