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[ १९ ] विध्वंसनके प्रकरणोंका ही नाम क्रमश: दिया गया है और उन प्रकरणोंमें भीषगजी
और जीतमलजीके शास्त्र विरुद्ध सिद्धान्तोंका प्रमाणानुसार निराकरण किया गया है। भ्रमविध्वंसनको सामने रख कर बुद्धिमान् पुरुष यदि इस प्रन्थका मनन करें तो अनायास ही वे तथ्यातथ्यका निर्णय कर सकते हैं कालिदासने लिखा है कि "हेम्न: संहक्ष्यते ह्यनौ विशुद्धिः श्यामिकाऽपिवा" अर्थात् सोना विशुद्ध है या, नहीं है यह बात आग में ही जानी जाती है। अत: विद्वान् जीवोंसे इस प्रन्थ की सत्यता या असत्यता छिप 'नहीं सकती।
__ अन्तिम निवेदन। प्रारम्भमें यह ग्रन्थ, प्रतिवादिमानमर्दन श्रीमन्जनाचार्या १००८ पूज्य श्री जवा हरलालजी महाराजने कच्चे खरे के रूपमें अपने सन्तोंको लिखवाया था। श्रीयुत पण्डित अम्बिकादत्तजी ओझाने उस कच्चे खरेको देख कर तथा अन्यान्य नये विचार पूज्य श्री के मुखारविन्दसे सुन कर बड़े परिश्रमके साथ अन्यको इस रूपमें तय्यार किया
और जहां उन्हें उचित प्रतीत हुआ वहां संशोचन भी किया। पण्डित महोदय यद्यपि व्याकरण आदिके बहुत अच्छे विद्वान् हैं परन्तु जैन सिद्धांतोंको जानने और उनके विषय में कुछ लिखने का यह पहला ही मौका है। इसलिये सम्भव है कि पूज्यश्रीके कहे हुए आशयको समझनेमें पण्डित महोदयको कहीं भ्रम हुआ हो और इस प्रकार प्रन्थमें कोई त्रुटि रह गयी हो। साथ ही दृष्टिदोष और प्रेसके कर्मचारियोंकी असावधानीसे भी ग्रन्थ में त्रुटियोंका रहना सम्भव है। अत: पाठकोंसे निवेदन है कि किसी त्रुटिके दृष्टिगोचर होने पर हमें सूचित करने की कृपा करें। न्याय्य बातको स्वीकार करने में हमको किसी प्रकारका दुराग्रह नहीं हो सकता । तथा त्रुटियों का संशोधन होना भी उचित है इसलिये पाठकोंकी ओरसे आई हुई ऐसी सूचनाका स्वागत करते हुए हम पाठकों का आभार मानेंगे तथा दृमरी आवृत्तिमें उन त्रुटियोंको न रहने देनेका भर सक प्रयत्न करेंगे।
गच्छतः स्खलनं कापि भवत्येव प्रमादतः हसंति दुर्जनास्तत्र समादधति साधवः ।
भवदीयःतनसुखदास फूसराज दूगड़ (सरदार शहर)
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