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बोल १७ बां पृष्ठ ४४२ से ४४४ तक भगवती शतक १२ उद्देशा १० में आत्म मात्रका भेद कहा गया है भाव आत्मा का ही नहीं। भगवतो शतक १३ उ० ७ में मात्माका शरीरके साथ दिन अभेद और यचित् भेद कहा है।
बोल १८ वां पृष्ठ ४४५ से ४४६ तक पीलोइममिपन्न भावको एकान्त नीव और अजीयोदयनिष्पन्न माल को एकान्त अजीव बताना महान है।
बोल १९ वां पृष्ठ ४४६ से ४४७ तक भाष रूप होनेसे न कोई पदार्थ एकान्त अरूपी होता है और अव्य-रूप होने से न एकान्त रूपी ही ो जाता है अतः भाव रूप होने से क्रोधादि को काम सरूपी कहना मिथ्या है।
बोल २० वा पृष्ठ ४४७ से ४४९ तक क्रोध, मान, माया और लोभ कर्मों के उदयसे उत्पन्न होते हैं इस लिये अपने कारण अनुसार ये रूपी और पौगलिक हैं।
बोल २१ वां पृष्ठ-४४९ से ४५१ तक ____ भगवती शतक १३ उद्दशा ७ में मन और वचनको रूपी तथा जीव से भिन्न कहा है इसलिये उनके योग भी रूपी और अजीव हैं अत: योगाश्रवको एकान्त अरूपी और जीव कहना अज्ञान है।
बोल २२ वां ४५१ से ४५३ तक ठाणसत्रकी टीकामें आश्रयको जीव और अजीव दोनों में गतार्य किया है।
बोल २३ वां गृष्ठ ४५३ से ४५४ तक कर्म भी कर्मके ग्रहण करनेमें कारण होनेसे माश्रव है। वह पौद्धलिक कहा गया है इस लिये श्रावकको एकान्त मजीव मानना अज्ञान है।
इति आश्रवाधिकारः । अथ जीवाजीवदि पदार्थ विचारः।
बोल १, पृष्ठ ४५५ से ४५६ तक। जीव और अजीव आदि नौ ही पदार्थ किसी न्यायसे रूपी और किसी न्यायसे अरूपी हैं।
बोल दूसग पृष्ठ ४५६ से ४५७ तक मुख्य नयसे चार पदार्थ रूपी चार अरू पी और एक मिश्र है।
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