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लेश्याधिकारः।
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समझनी चाहिये । अर्थात् यहां भी "जहा ओहियाणं" कह कर प्रमादी अप्रमादी सरागी और वीतरागी इन चारों प्रकारके साधुओंको कृष्णलेश्यासे अलग किया गया है उनमें कृष्गलेश्याका सद्भाव नहीं कहा है। अन्यथा अप्रमादी और वीतरागमें भी कृष्णलेश्या माननी पडेगी क्योंकि औधिक दण्डकमें समुच्चय लेश्याके अन्दर संयतिके प्रमादी अप्रमादी सरागी और वीतरागी ये चारो ही भेद कहे गये हैं इनमें यदि इस पाठसे कृष्णलेश्याका सद्भाव माना जाय तो प्रमादी और सरागीकी तरह अप्रमादी और वीतरागीमें भी कृष्णलेश्या सिद्ध होगी परन्तु अप्रमादी और वीतरागीमें कृष्णलेश्याका सद्भाव मानना भ्रमविध्वंसनकारको भी इष्ट नहीं है अत: पन्नावणा सुत्र के इस पाठमें भी भगवती सूत्र के पूर्वोक्त पाठकी तरह कृष्णलेश्यामें चारो प्रकारके संयतियोंका निषेध ही किया है परन्तु सरागी और प्रमादीको स्थापन नहीं किया है। इसलिये इस पाठका नाम लेकर साधुओं में कृष्णादिक तीन अप्रशस्त भाव लेश्याओं का स्थापन करना एकान्त मिथ्या है।
( बोल ४ समाप्त) (प्रेरक)
भ्रमविध्वंसनकार भ्रमविध्वंसन पृष्ठ २३८ के ऊपर भगवती सुत्र शतक २५ उद्देशा ६ का मूलपाठ लिख कर उसकी समालोचना करते हुए लिखते हैं कि
“अथ अठे तीर्थंकरमें छद्मस्थपणे कषाय कुशील नियंठो कह्यो छै तिणसू भगवान में कषाय कुशील नियंठो हुन्तो अने कषाय कुशील नियंठे छः लेश्या कही छै” आगे चल कर लिखते हैं "ते न्याय भगवानमें छः लेश्या हुवे (भ्र० पृ० २३८)
___ इसका क्या समाधान ? (प्ररूपक)
भगवती शतक २५ उद्देशा ६ में कषाय कुशीलमें समुच्चय छः लेश्या कही हैं परन्तु वहां यह निर्णय नहीं किया है कि इन छ: लेश्याओंमें कौन कौन द्रव्य रूप हैं और कौन कौन भाव रूप हैं। अब देखना यह है कि कषाय कुशीलमें जो छः लेश्याएं कहीं गयी हैं वे द्रव्य रूप हैं या भाव रूप हैं ?
इसका निर्णय भगवती शतक १ उद्देशा १ के मूलपाठ और दोकी टीकामें टीकाकारने कर दिया है वहां टीकाकारने कहा है कि-"कृष्णादि तीन अप्रशस्त भाव लेश्याओंमें साधुपना नहीं होता इसलिये इन लेश्याओंमें साधुको वर्जित किया है जहां कहीं
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