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सद्धममण्डनम् ।
पन्नत्तिमें तीन तीर्थ कह्या मागध वरदाम प्रभास पिण आदरवा योग्य नहीं तिम सावध धर्म, स्थविर, द न पिण आदरवा योग्य नहीं सावध छाड़वा योग्य है" इसका क्या समाधान ? ( प्ररूपक )
ठसूत्र ठाणा दशका मूलपाठ लिख कर इसका समाधान किया जाता है । artis सूत्रका मूलपाठ यह है :
" दसविहे धम्मे पन्नत्ते तंजहा - गामवम्मे, नगरघम्मे, रहधम्मे, पासंडघम्मे, कुलधम्मे, गणधम्मे, संघधम्मे, सुयधम्मे, चारितधम् अस्थिकायधम्मे"
( ठाणाङ्गठाणा १०)
टीका:
ग्रामाः जनपदाश्रयास्तेषां तेषुवा धर्मः सदाचारो व्यवस्थेति ग्राम धर्मः । सचप्रतिग्रामं भिन्न इति । अथवा ग्राम इन्द्रियग्रामो रूढे स्तद्धर्मो विषयाभिलाषः । नगरधम्र्मो नगराचारः सोऽपि प्रतिनगरं भिन्न एव । राष्ट्रधर्मो देशाचारः पाषण्डधर्मः पाखण्डिनामा'चारः कुलधर्म उग्रादि कुलाचारः । अथवा कुलं चान्द्रादिक माहतानां गच्छ समूहात्मकं तस्यधर्मः समाचारो । गणधर्मा मल्लादिगण व्यवस्था जैनानांवा कुडसमुदायो गणः कोटि कादिः तद्धर्मस्वत्समाचारः । श्रुतमेव व्याचारादिकं दुर्गति प्रपतज्जीव धारणाद्धर्मः श्रुतधर्मः चयरिक्तकरणा चारित्र' तदेव धर्मश्चारित्रधर्मः । अस्तयः प्रदेशा स्तेषां कायोराशि रस्तियः स एव धर्मो गतिपर्याये जीवपुद्गलयोर्धारणादस्तिकायधर्मः” । अर्थ:
ग्रामस्थ जनताके व्याचार व्यवहार आदिकी व्यवस्थाका नाम ग्राम धर्म है वह भिन्न भिन्न ग्रामों का भिन्न भिन्न होता है धर्म यानी विषयाभिलाष को ग्रामधर्म कहते हैं ।
नगर में रहने वाली जनता के आचार व्यवहारका नाम नगरधर्म है और देश विदेश के आचार व्यवहार की व्यवस्था को राष्ट्रधर्म कहते हैं । पाखण्डी यानी ब्रतधारियों के आचार व्यवहार की व्यवस्था का नाम पाखण्ड धर्म है । उम्र आदि कुलके
विषयाभिलाष इन्द्रियोंके स्वभावका भी नाम है उसमें रागद्वेष करना कर्मबन्धका कारण है अन्यथा नहीं इसलिये इसे एकान्त पापमें नहीं कह सकते । भीषणजीने भी लिखा है । 'कामने भोग शब्दादिक तेहथी रे समता नहीं पावे जीव लिंगार रे । असमत्ता पिण नहीं पामेछे एहथीरे यहां सृ मूल नहीं पावे जीव विकार रे । जो रागद्वेष आणे त्यां ऊपरे रे ते ही विकार विषय कषाय रे ।” ( इन्द्रियादिकी दाल )
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