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यहां सम्यग्दर्शनको पहला स्थान दिया है और सत्यचारित्रको चौथा, क्योंकि सम्यग्दर्शनके विना सम्यक् चारित्र नहीं होता। यहां तक कि सम्बं प्रकारका संकल्प भी नहीं हो सकता । सम्यग्दर्शन होने पर ही सम्यक् संकल्प और मोक्ष प्राप्तिकी दृढ़ इच्छा होती है, इसी कारण यहां सम्यग्दर्शनके बाद सम्यक संकल्प गिनाया गया है। न्याय दर्शनमें गोतम मुनि कहते हैं- "दुःख जन्म प्रवृत्ति दोष मिथ्याज्ञानाना मुखरोगपाये तदनंतरापायादपवर्गः” (न्याय ०१ )
र्थात् मोक्ष के लिये सर्व प्रथम मिथ्या ज्ञानका नाश होना व्यावश्यक है। मिध्या ज्ञानके नाश होने पर रागादि दोष, रागादि दोषोंके नाशसे प्रवृत्ति और प्रवृत्तिके नाशसे जन्म और जन्मके नाशसे दुःखका नाश होता है । दुःखों का नाश होने पर मोक्षकी प्राप्ति होती है ।
यहां पर भी यह बताया गया है कि मोक्षके लिये सबसे पहले सम्यग्ज्ञानकी आवश्यकता है। बिना सम्यक् ज्ञानके मिथ्या ज्ञानका नाश नहीं होता और मिथ्या ज्ञानके नाशके विना इह लोक और परलोकके सुखोंका अनुराग आदि नष्ट नहीं होते । अब तक सांसारिक सुखोंका अनुराग आदि नष्ट नहीं होते तब तक मोक्ष पाना अत्यन्त दुर्लभ है इस लिये मोक्ष प्राप्तिके लिये सम्यग् ज्ञानकी सर्व प्रथम नावश्यकता न्याय दर्शन में लाई है। वैशेषिक दर्शनमें कहा है :
“तत्त्वज्ञानान्निःश्रेयसम्” (वै० सूत्र ) तत्त्वज्ञानमात्मसाक्षात्कार ६६ विवक्षितस्वैव सवासन मिथ्याज्ञानोन्मूलनक्षमत्वात्” “तमेव विदित्वातिमृत्युमेति नान्यः पन्था विद्यतेऽनाय"
अर्थात् आत्माका साक्षात्कार हो जानेको तवज्ञान कहते हैं क्योंकि उसीसे मिथ्या ज्ञानका नाश हो सकता है। तत्वज्ञान होने पर ही मोक्ष होतो है। आत्माका प्रकाशके सिवाय मुक्तिका और कोई उपाय नहीं है।
यह मान्यता भी जैन धर्मसे मिलती है। जैन धर्म का मत है कि आत्मामें जब सम्यग्दर्शन होता है तब मिथ्या ज्ञानका नाश होता है और वैशेषिक दर्शन भी यही कहता है कि आत्म साक्षात्कार ही मिथ्या ज्ञानका नाशके द्वारा मोक्ष देने में समर्थ है।
कपिल ऋषि प्रणीत सांख्य दर्शनमें इस विषय पर और भी अधिक प्रकाश डाला गया है । सांख्य दर्शनके प्रारम्भिक सूत्र यों हैं—
“अथ त्रिविध दुःखात्यन्तनिवृत्तिः परम पुरुषार्थः । नदृष्टात्सिद्धि निवृत्तेऽप्यनुवृत्ति दर्शनात् । प्रात्यहिकक्षुत्प्रतीकारवत् तत्प्रतीकार श्रेष्टनात्पुरुषार्थत्वम्” सर्वासंभवात् संभवेऽपि सत्त्वासंभवाद्ध`यः प्रमाणकुशलैः । उत्कर्षादपिमोक्षस्य सर्वोत्कर्म श्रुतेः" ( सांख्य दर्शन सूत्र १-२-३-४-५ )
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