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. इस उल्लेखमें नहानीको सदा अपवित्र बताया है 'सदा' शब्द देनेका तात्पर्म यह है कि मझानी चाहे अध जो क्रियाएं करे पर ज्ञानका अभाव होनेसे उसको सप क्रियाए पवित्रताका कारण नहीं हो सकती वरन् अपवित्रताका ही कारण होती हैं। ठीक इसी प्रकारका उल्लेख जैन सूत्र सूत्रकृतांग सूत्रमें है
"जेयाऽबुद्धा महाभागा वीरा असम्मत्त दंसिणो असुद्ध तेसि परकतं सफल होइ सब्बसो । जेय बुद्धा महाभागा वीरा संमत्तदंसिणो / सुद्धतेसिं परकतं अफल होइ सब्बसो।"
(सु० श्रु० १ ० ८ गाथा २३-२४) अर्थात् जो असम्यदी और अज्ञानी है वह जगतमें महाभाग यानी पूजनीय अथवा बड़ा भारी वीर समझा जाता हो पर उसकी सभी क्रियाएं अपवित्र और संसारिक फलको ही देने वाली होती हैं। जो सम्यग्दशी और ज्ञानी है उस महाभाग और वीर पुरुष की दानाध्ययनादि रूप सभी पारलौकिक क्रियाएं पवित्र और मोघ फल देती हैं।
___ अपर कहे हुए उपनिषद्के वाक्य और सुय० को उक्त गाथाओंके मिलान करनेसे स्पष्ट हो जाता है कि इस विषयमें जैन और वैदिक सम्प्रदायकी मान्यता एक ही है। क्रियाएं समान होने पर भी सम्यग्ज्ञानी होनेसे एक व्यक्ति उनसे मोक्ष प्राप्त करता है और दूसरा अज्ञानी होनेसे इन्ही क्रियाओंको संसारका कारण बना देता है।
"हिरण्मये परे कोषे विरजं ब्रह्म निष्फलम् । तच्छुभ्र ज्योतिषां ज्योतिस्तद् यदात्मविदोविदुः"
(मुण्डकोपनिषत् ) सुनहरी परम कोषमें निर्मल निरवयव ब्रह्म ( आत्मा) है वह शुभ्र है, ज्योतियों की ज्योति है उसे वे ही जान सकते हैं जो अपनी आत्माको जानते हैं।
इस वाक्यमें भी ज्ञान को ही मुक्तिका साधन माना है अज्ञान या मिथ्यात्वको नहीं । बौद्ध धर्ममें मुक्तिके अंग माठ माने हैं । उन सबमें सबसे पहले सम्यग्दृष्टि अर्थात् दुःख दुःखके कारण और उन्हें दूर करनेके उपायोंको सम्यक्प्रकार जानना, बतलाया है। मूल पाठ यह है
"सम्यादृष्टिः सम्यकसंकल्पः सम्यग्वाक् सम्यकर्मान्तः सम्यगाजीवः सम्याव्यवसायः सम्यकस्मृति: सम्यक्समाधिश्च । तत्र सम्यग्दृष्टिः दुःखतद्धतु तन्निषेधमार्गाणां यथा तथ्येन दर्शनम् ।
. (तत्व सं० प्र० पू०५)
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