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सम्यक् ज्ञानके मोक्ष अथवा मोक्षकी आराधना नहीं हो सकती । इसका कारण यह है कि वन्धन से छूटना मोक्ष है । जब तक आत्मा अपने असली स्वरूप को, अपने वन्धनको, वन्धन के कारणको, मोक्षके उपायोंको सम्यक् प्रकार से नहीं जान लेना तब तक उसे न वर्तमान विकारमय अवस्थासे मुक्त होने की इच्छा हो सकती है और न वह उसके लिये किसी प्रकारकी प्रवृत्ति ही कर सकता है। जिस रोगीको यह मालूम नहीं है कि मैं रोगी हूं, मैं रोगी हुआ हूँ, रोगसे मुक्त होनेके उपाय क्या हैं नीरोगता क्या चीज है, वह अपना रोग मिटाने की न कभी इच्छा करेगा और न उसकी प्रवृत्ति ही करेगा ।
यही कारण है कि समस्त धर्मोने सम्यग्ज्ञानको अवश्य ही मुक्तिके साधनोंमें प्रधान माना है । ऊपर वृहदारण्यक के उल्लेखमें भी यही बात बताई गई है । बृहदारण्यक के सिवाय अन्य उपनिषदोंमें तथा प्रत्येक दर्शन शास्त्र में भी यही मान्यता स्वीकार की गई है। कुछ उदाहरण हम नीचे देते हैं, जिससे विषय स्पष्ट हो जाय ।
" नायमात्मा वलहीनेन लभ्यो नच प्रमादात्तपसोबाऽप्यलिंगात् तैरुपायैर्यते यस्तु विद्वांस्तस्यैष आत्मा विशते ब्रह्मधाम "
अर्थात् जिसमें आत्मबल नहीं है वह पुरुष आत्मा ( आत्माके असली स्वरूप ) को नहीं पा सकता । न वह आत्मा प्रमादसे, और लिंग ( साधुका भैष ) हीन तपसे ही. प्राप्त हो सकता है। हां, जो ज्ञानी बन कर इन उपायोंको आत्मबल, अप्रमाद, लिंग युक्त aपको काममें लाता है वही ब्रह्मधाम ( आत्माके असली निवासस्थान ) में प्रवेश करता है ।
वृहदारण्यक और मुण्डकोपनिषद के इन दोनों उल्लेखोंसे, यह विषय साफ समझ जाता है कि जो मनुष्य ज्ञान हीन होकर तपस्या बादि करता है वे उसके सब कर्म संसारके ही कारण हैं और जो ज्ञान युक्त होकर इन्हीं तपस्या आदि कर्मोको करता है, उसके वे ही कर्म मुक्ति के कारण होते हैं ।
"यस्त्वविज्ञानवान् भवत्यमनस्कः सदाऽशुचिः । नसतपदमाप्नोति संसारं चाधिगच्छति । यस्तुविज्ञानवान् भवति समनस्कः सदाशुचिः । सतु तत्पदमाप्नोति यस्माद् भूयो न जायते ।
( कठोपनिषत् ) अर्थात् जो ज्ञानी नहीं है वह ठीक ठीक विचार नहीं कर सकता और वह सदा अपवित्र है । वह मोक्ष नहीं पा सकता प्रत्युत संसारमें ही परिभ्रमण करता है। ओ ज्ञनी है वह ठीक ठीक विचार कर सकता है और वह सदा पवित्र है । वह ऐसे पदको पाता है जिससे फिर कभी वापस नहीं लौटना पड़ता है ।
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