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________________ दानाधिकारः । है, वह इसलिये कि प्रायश्चित्तका कारण जान कर साधु उक्त कार्योंका सेवन न करे उसी तरह भगवती शतक ८ उद्देशा ६ में श्रमणोपासक के लिये अन्यतीर्थी धर्माचाय्ये को गुरु बुद्धिसे दान देनेका फल एकान्त पाप कह कर उस कार्य्यसे निवृत्त रहने का संकेत किया है। जो कार्य साधु या श्रावक नहीं करते उसका फल शास्त्र न बतावे यह कोई नियम नहीं है प्रत्युत निषिद्ध कर्मों का फल बता देना शास्त्रकार को आवश्यक है। नहीं तो निषिद्ध कर्मोंका बुरा फल किसी को कैसे ज्ञात हो, अतः अन्यतीर्थी धर्माचाको गुरु बुद्धिसे दान देनेका फल एकान्त पाप होना इस पाठमें कहा है अनुकम्पा दानमें पाप होना नहीं कहा अतः भगवतीके इस पाठका आश्रय लेकर हीन दीन दुःखी प्राणी पर दया लाकर दान देनेमें एकान्त पाप कहना मूर्खोका काय्र्य है । ( प्रेरक ) १०५ स्वतीर्थी या परतीर्थी साधुको ही देने अर्थ में "पडिलभ माणे" इस पदका व्यवहार मूलठोंमें हुआ है गृहस्थको देने अर्थ में नहीं यह बात भ्रमविध्वंसनकार नहीं मानते । उन्होंने ठाणाङ्ग, भगवती और ज्ञाता सूत्रका मूल पाठ लिख कर गृहस्थ को दान देनेके अथमें भी “पडिलभमाणे" इस पदका व्यवहार होना बताया है और आचारांग सूत्रका मूल पाठ लिख कर यह कहा है कि "दलएज्जा" और "पडिलभमाणे " ये दोनों शब्द एकार्थक हैं इनमें गृहस्थको दान देने अर्थ में "दलज्जा" शब्द आया है इस लिए उसका समानार्थक "पडिलभ माणे " पद भी हर एकको दान देने अर्थ में आ सकता है केवल साधुको देने अर्थमें ही नहीं । इसका क्या समाधान ? ( प्ररूपक ) ठाणाङ्ग, भगवती, और ज्ञाता आदि सूत्रोंमें कहीं स्वतीर्थी और कहीं परतीर्थी साधुको ही देने अर्थ में "पडिलभमाणे" इस पदका व्यवहार हुआ है गृहस्थको देने अर्थ में उक्त सूत्रोंमें कहीं भी उक्त पदका व्यवहार नहीं है इसलिए ठागाङ्ग आदि सूत्रोंका झूठ ही नाम लेकर स्वतीर्थी या परतीथों साधुसे इतरको दान देने अर्थ में "पडिलभमाणे " पद का व्यवहार बताना मिथ्या है। आचारांग सूत्रका मूल पाठ लिख कर जो जीतमलजीने “दलएज्जा” पदके समानार्थक होनेसे “पडिलभमाणे" इसका व्यवहार गृहस्थको दान देने अर्थ में बताया है वह भी अयुक्त है । साधुको दान देने अर्थ में दल्लएज्जा और "पडिलभमाणे” ये दोनों शब्द आते हैं परन्तु गृहस्थको देने अर्थ में "पडिलभमाणे" इस पदका व्यवहार कहीं भी नहीं है। गृहस्थ और साधु दोनोंको दान देने अर्थमें “दलएज्जा" यह पद आता है परन्तु "पडिलभमाणे" यह पद स्वतीर्थी या परतीर्थी साधुको देने अर्थमें ही आता है अतः आचारांग सूत्रकी साक्षी देनाभी भ्रमविध्वंसनकारका अयुक्त है । १४ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034599
Book TitleSaddharm Mandanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Maharaj
PublisherTansukhdas Fusraj Duggad
Publication Year1932
Total Pages562
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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