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________________ दानाधिकारः। १०३ अर्थात् अनुकम्पा दान देनेसे चित्तकी शुद्धि, और धनके प्रति ममताका नाश तथा कल्याणानुवन्धी कल्याणकी प्राप्ति होती है और अनुकम्पाभावके उदय होनेसे यह दान दिया जाता है। इस श्लोकमें हरिभद्र सूरिने अनुकम्पादानका फल एकान्त पाप न कह कर इसे कल्याणानुवन्धी कल्यागका कारण कहा है अत: भगवती शतक ८ उद्देशा ६ के मूलपाठ में असंयतिको मोक्षार्थ गुरु बुद्धिसे दिया जाने वाला दानका ही फल एकान्त पाप कहा गया है अनुकम्पादानका नहीं इसलिये भगवती शतक ८ उद्देशा ६ का नाम लेकर अनुकम्पादानमें एकान्त पाप कहना सूत्रार्थ न जानने वालोंका कार्य है। यदि कोई कहे कि "हरिभद्र सूरि और भगवती सूत्रका टीकाकार यद्यपि असं- . यतिको अनुकम्पा दान देनेसे एकान्त पाप होना नहीं कहते तथापि यह बात मूलपाठसे नहीं निकलती। मूलपाठमें किसी दान विशेषका नाम न लेकर असंयतिको दान देनेसे एकान्त पाप कहा है इसलिये टीकाकार और हरिभद्रसूरिके कथनमें कोई प्रमाण नहीं है" तो इसका उत्तर यह है कि टीकाकार और हरिभद्र सूरिका पूर्वोक्त कथन निराधार नहीं है वह भगवतीके इस मूलपाठसे ही निकलता है । यह बात मूल पाठ लिख कर बताई जाती है। वह मूलपाठ यह है “समणोवासएणं भन्ते ! तहारूवं असंजय अविरय अपडिहय पचक्खाय पाव कम्मे फासुएणवा अफासुएणवा एसणिज्जेणवा अणेसणिज्जेणवा असणपाण जाव किं कजइ ? गोयमा! एगंतसो से पावे कम्मे कज्जइ नथिसे काइ निजरा कजई" (भगवती शतक ८ उद्देशा ६) इस पाठमें सभी असंयतिओंका नाम न लेकर तथा रूपके असंयतिको दान देने से श्रावकको एकान्त पाप होना कहा है । तथारूपका असंयति वह है जिसको लोकमें गुरु बुद्धिसे दान दिया जाता है और जो अन्य तीर्थियोंके शास्त्रानुसार लिङ्ग रखता हुआ अन्य तीर्थी धर्मकी स्थापना करता है उसीको दान देनेसे एकान्त पाप होना कहा है इसलिये भगवती सूत्रके इस मूलपाठ से ही यह बात निकलती है कि गुरु बुद्धिसे असंयतिको दान देना एकान्त पापका कारण है अत: भगवतीके टीकाकार और हरि भद्र सूरिका पूर्वोक्त कथन स्वकपोल कल्पित न होकर मूल पाठके अनुसार ही है उसे अप्रामाणिक समझना अज्ञान है। टीकाकारोंने “तथा रूप" शब्दका अर्थ इस प्रकार किया है Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034599
Book TitleSaddharm Mandanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Maharaj
PublisherTansukhdas Fusraj Duggad
Publication Year1932
Total Pages562
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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