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अर्थात जो पुरुष हजार गायें ब्राह्मणोंको दान देता है वह यदि एक प्राणी को जीवन दान देवे तो उसके इस कार्यके तुल्य पहला कार्य नहीं है यानी जीवनदान देना गोदानसे भी श्रेष्ठ है। - इत्यादि अन्य मतावलम्बी शास्त्रोंमें भी जीवरक्षाको सर्वोत्तम धर्म माना है और जैनागमका तो यह प्राण ही है। पर आजकल हुण्डा अवसर्पिणी कालके प्रभावसे श्वेताम्बर जैन धर्मके अन्दर एक 'तेरह पंथ" नामक सम्प्रदाय प्रकट हुआ है। यह सम्प्रदाय जैनधर्म के मूल भूत जीवरक्षा धर्मको विनाश करके जैनधर्मका मूलोच्छेद करना चाहता है। इसके सिद्धांतोंके नमूने कुछ यहां बतलाये जाते हैं।
(१) गायोंसे भरे हुए बाडेमें यद भाग लग जाय और कोई दयावान् पुरुष उस वाडे के द्वारको खोल कर गायों की रक्षा करे तो उसे तेरह पन्थी एकान्त पापी कहते हैं।
(२) भारसे पूर्ण गाडी मा रही है और मार्गमें कोई बालक सोया हुआ है उस पालकको कोई दयावान पुरुष उठा लेवे तो इस कार्यको तेरह पन्थ सम्प्रदाय एकान्त पाप बतलाता है।
(३) तीन मजिल पर से कोई बालक गिरता हो तो उस को ऊपर ही पकड़ कर बंचाने वाले दयावान् पुरुष को तेरह पन्थी एकान्त पाप करने वाला बत-- लाते हैं।
(४) पञ्चमहाव्रतधारी साधु के गले में किसी दुष्ट के द्वारा गायी हुई फांसी को यदि कोई दयालु पुरुष खोल देवे तो उस में तेरह पन्थी एकान्त पाप होना बवलाते हैं।
(५) कसाई मादि हिंसक प्राणीके हाथसे मारे जाते हुए वकरे आदि की पाण.. रक्षा करनेके लिये यदि कोई कसाईको नहीं मारनेका उपदेश देवे तो तेरह पन्थी उसे एकान्त पाप कहते हैं।
(६) किसी गृहस्थके पैरके नीचे कोई जानवर आ गया हो तो उसको बतलाने वाले दयावान् पुरुषको तेरह पन्थी एकांत पाप होना कहते हैं।
(७) तेरह पन्थके साधुओंके सिवाय संसारके सभी प्राणियों को तेरह पन्थी "कुणत्र" कहते हैं।
(८) तेरह पन्थके साधुओंके सिवाय दुसरेको दान देना, मांस भक्षण मद्यपान और वेश्यागमनके समान एकान्त पाप तेरह पन्थी बतलाते हैं।
(९) पुत्र अपने माता पिताकी और स्त्री, अपने पतिकी सेवा शुश्रूषा करे तो इस कार्यको तेरह पन्थी एकान्त पाप कहते हैं।
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