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[ ४ ] (१०) किसी गृहस्थ के घरमें आग लग गयी हो और गृहस्थका परिव र घरका द्वार बन्द होने के कारण बाहर नहीं निकल सकता हो किन्तु घरके भीतर आगमें जरते हुए मनुष्य, स्त्री और बच्चे आदि आर्तनाद करते हों तो उस घरका द्वार खोल कर उन प्राणियोंकी रक्षा करने वालेको तेरह पन्थी एकान्त पाप करनेवाला कहते हैं और उस घरका द्वार नहीं खोलना धर्म बतलाते हैं। जैसे कि भीषणजीने लिखा है
"गृहस्थ रे सायो लायो घर वारे निकलियो न जायो। बलसा जीव विल विळ बोले साधु जाई किमाड न खोले"
यही भीषणजी इस तेरह पन्थ सम्प्रदायके प्रवर्तक हुए हैं। इनका वृत्तान्त दीप विजयजीकी चर्चामें इस प्रकार लिखा है।
मारवाड देशमें "कण्टालिया" नामक प्रामका रहने वाला ओसवाल संक्लेचा गोत्री भोषणचन्द नामक व्यक्तिने सम्बत १८०८ में वाईस सम्प्रदायके पूज्य आचार्या श्री रघुनाथजो महार.जसे दीक्षा ग्रहण की। पश्चात शहर मेरताके अन्दर श्री रघुनाथजी महाराज, भेषणचन्दजीको भगवती सूत्र पढ़ाने लगे। भीषणजीको कितनी बातें जंचती और कितनी नहीं जंचतीं। यह चेष्टा श्रावक समर्थमलजी धाडीवालने देखी। उक्त श्रावकने पूज्य श्री रघुनाथजी महागजसे कहा कि आप भीषणजीको भगवती सूत्र पढ़ा कर सर्पको दूध पिला रहे हैं। यह भोषणजी आगे चल कर निन्हव होगा और उत्सूत्र
प्ररूपणा करेगा।
___ यह सुन कर पूज्य श्री ग्घुनाथजी महाराजने कहा कि पहले भी भगवान् महा. वीर स्वामीने गोशालक और जामाली को पढ़ाया था और वे निन्हव हुए, यह उनके को दोष था।
इस प्रकार चौमासे भरमें सम्पूर्ण भगवती सूत्र वंचवा कर चौमासा उतरने पर पूज्य श्री रधुनाथजी महाराजने भीषणजीसे कहा कि पुस्तक यहां रख कर जाना। पर भीषणजीने यह बात नहीं मानी । वह भगवतीका पुस्तक लेकर वहांसे चल दिये । पश्चात् पूज्य श्री रघुनाथजीने दो शिष्योंको भेज कर भीषणजीसे पुस्तक मंगवाई। वहीं पर भीषगनीका पूज्य श्री रघुनाथजी महाराज पर क्रोध उत्पन्न हुआ। और भीषणजीने निश्चय किया कि मैं नवीन मत निकाल कर पूज्य श्री रघुनाथजीको अपमानित करू। ___यह विचार कर भीषगजीने मेरतासे विहार का मेवाड़में राजनगरके अन्दर चातुर्मास्य किया। वहां सूत्र बांचते हुए भीषणजीने यह प्ररूपणा की कि साधु मुनिराज को किसी त्रस स्थावर आदि जीवोंको हिंसा नहीं करनी चाहिये और करानी भी नहीं चाहिये तथा करते हुए को अच्छा भी न समझना चाहिये । तथा किसी प्राणीको बांधना
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