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नहीं चाहिये तथा बंध ना भी नहीं चाहिये और बांधते हुए को अच्छा भी नहीं समझना चाहिये ।
एवं क्रिसी बांधते हुए जीवको रक्षार्थ छोड़ना नहीं चाहिये छोड़ाना भी नहीं चाहिये और छोड़ने वालेको अच्छा भी नहीं आनना चाहिये। यह मुनिराजका आचार है इस प्रकार श्रावक भी तीर्थंकरका लघु पुत्र है और देशव्रती है इस लिये श्रावकको भी बांधे हुए प्राणीको रक्षार्थ नहीं छोड़ना चाहिये और छोड़ाना भी नहीं चाहिये तथा छोड़ने वाले को अच्छा भी नहीं समझना चाहिये ।
कोई किसी जीवको मारता हो तो छुड़ानेमें अन्तराय लगता है तथा छुड़ानेके बाद जो वह जीव हिंसा, मैथुन, पाप आदि कार्य करता है वह सब पाप छुड़ानेवालेके शिर पर लगता है। तथा गाय बैल आादिसे बाड़ा भरा हुआ है और उसमें यदि आग लग गई हो तो उम्र बाड़ेका द्वार खोल कर उन पशुओंकी रक्षा नहीं करनी चाहिये। क्योंकि मरने से बचे हुए वे गाय बैल आदि मैथुन और हिंसा आदि पाप करेंगे वह सब पाप उनकी रक्षा करने वाले को लगेगा । तथा हिंसकसे मारे जाने वाले बकरे, भैंसे आदि जीवित रह कर जो पाप करते हैं वह पाप छुड़ाने वालेको लगता है । यह प्ररूपणा
भीषणजीने की थी ।
भीषगजी और जयमल जीके शिष्य वक्तोजी तथा वत्सराजजी ओसवाल और लालजी पोरवाल इन चारों जनोंने मिल कर यह प्ररूपणा की थी । यह बात पूज्य श्री रघुनाथजी महाराजने सोजदके चातुर्मास्यमें सुनी और उन लोगोंकी विपरीत श्रद्धा हुई जानी । चातुर्मास्य उतरने पर भीषगजी पूज्य श्री रघुनाथजी महाराजके पास गये परन्तु पूज्य श्रीने भीषणजीको उत्सूत्र प्ररूपी जान कर आदर नहीं दिया । और शामिलमें आहार भी नहीं किया। यह देख कर भीषगजीने पूज्य श्रीजीसे पूछा कि मेंने क्या अपराध किया है जिससे आप नाराज हो गये हैं। पूज्य श्री रघुनाथजी महाराजने कहा कि तुमने उत्सूत्र प्ररूपणा की है यही अपराध है । फिर पूज्य श्रीजीने भीषणजीको अच्छी तरह समझा कर षण्मासिक प्रायश्चित देकर आहार पानी शामिल में कर लिया । परन्तु भीषगजीके शिष्य भारमलने अपनी यह श्रद्धा नहीं छोड़ी। पश्चात् पूज्य श्री घुनाथजी महाराजने भीषणजी से कहा कि जयमलजीके शिष्य वक्तोजीको, वत्सराज ओसवालको, लालजी पोरवालको तथा राजनगरके श्रावकोंको तुमने ही विपरीत श्रद्धा दी है इस लिये वह श्रद्धा तुमसे ही मिटेगी तुम उनको समझाओ। ऐसी गुरुकी व्याज्ञा होने पर भीषगजी राजनगर आये। वहां आने पर भीषण जीको वक्तोजीने बहुत उपालम्भ दिया और कहा कि हम सबने मिल कर एक नवीन पन्थ चलाना सोचा था लेकिन तुम
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