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________________ दानाधिकारः । यहां टीकाकारने वर्तमान कालका नाम न लेकर किसी भी कालमें अनुकम्पादान का निषेध करनेवालेको अगीतार्थ और प्राणियोंकी जीविकाका विनाश करनेवाला कहा है इस लिए इस टीकाका नाम लेकर वर्तमान कालमें ही अनुकम्पादानके निषेध करनेसे पाप कहना मूों का कार्य है। भ्रमविध्वंसनकारने जो सुयगडांगकी इस गाथाके नीचे टव्वा अर्थ दिया है वह मूल गाथा और उसकी टीकासे विरुद्ध होनेके कारण अप्रामाणिक है उसका आश्रय लेकर जनतामें भ्रम फैलाना साधुओंका कार्य नहीं है। भ्रमविध्वंसनकी पुरानी प्रतिमें तो शीलांकाचाय्यकी टीकामें आये हुए "वर्तन" शब्दका वर्तमान काल अर्थ किया है। वह लेख निम्न लिखित है "वृत्तिच्छेदं वर्तनोपाय विघ्नं कुर्वन्ति" "वृत्ति० आजीविका तेहनो छे० छेद व वर्तमान काले उ० पामवानों उपाय तेहनो वि० विघ्न के करे ते अविवेको" - यहां जीतमलजीने "वर्तन" शब्दका वर्तमान अर्थ लिया है परन्तु यह सर्वथा मिथ्या है । तन शब्दका अर्थ आजीविका है वर्तमान काल नहीं। टीकाकारने मूल गाथामें आये हुए "वृत्ति" शब्दका अर्थ वर्तन लिखा है इसलिए "वृत्ति" शब्दका वर्तन शब्द पर्याय शब्द है यह वर्तमान अर्थका वाचक नहीं हो सकता तथापि मूर्ख जनताको भ्रममें डालनेके लिये अथवा अज्ञतावश जीतमलजीने "वर्तन" शब्दका वर्तमान अर्थ लिखा है ऐसे लोगोंसे न्यायकी आशा रखना दुराशा मात्र है। भविष्यमें होनेवाले लाभमें विन पहुंचानेसे "पिहितागामिपथ " नामक अम्तराय लाता है। ठागाङ्ग सूत्रमें अन्तरायका भेद बतलानेके लिए यह पाठ आया है "अन्तराइए कम्मे दुविहे पण्णते तनहा पहुप्पन्नविनासिए पिहितागामिपह" मर्थात् अन्तराय कर्म दो प्रकारके कहे हैं एक प्रत्युत्पन्नविनाशी और दूसरा पिहिता गामि पथ । वर्तमानमें मिलती हुई वस्तुको न मिलने देना “प्रत्युत्पन्न विनाशी" कहलाता है। और भावो लाभके मार्गको रोक देना "पिहितागामिपथ" नामक अन्तराय कहलाता है। यहां ठाणाङ्गके मूल पाठमें भावी लाभके मार्गको रोक देनेसे अन्तराय लगना कहा है इसलिए भ्रमविध्वंसनकारने जो यह लिखा है कि “ अन्तराय तो वर्तमान काल में इज कही छै पिग ओर वेलां अन्तराय कयो नही" यह बिलकुल शास्त्रविरुद्ध है। ठाणाङ्गके उक्त पाठमें भविष्य कालमें भी अन्तराय कहा है इसलिए जो लोग उपदेश में एकान्त पाप कह का अनुकम्पा दानका त्याग कराते हैं वे ठाणाङ्ग सूत्रके मूल पाठानुसार "पिहिता गामि पथ" नामक अन्तरायके भागी हैं। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034599
Book TitleSaddharm Mandanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Maharaj
PublisherTansukhdas Fusraj Duggad
Publication Year1932
Total Pages562
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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