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________________ १३२ सद्धर्ममण्डनम् । __ "तित्थं पुण चाउवण्णा इण्णे समणसंघे तंजहा-समणा समणीओ सावया साविआओ" इस पाठमें साधु और साध्वीकी तरह श्रावक और श्राविका भी तीर्थ कहे गये हैं। तीर्थ नाम सुपात्रका है कुपात्रका नहीं जैसे कि मेदिनी कोषमें लिखा है: - "तीर्थ शास्त्राध्वर क्षेत्रो पाय नारी रजः सुच अवतारर्षि जुष्टाम्बुपात्रोपाध्यायमंत्रिपु" इस कोषके पथमें 'तीर्थ' शब्दका पात्र अर्थ बतलाया है अत: श्रावक सुपात्र सिद्ध होता है कुपात्र नहीं इस लिये साधुसे इतर सभीको कुपात्र कायम करना एकान्त मिथ्या है। ठाणाङ्ग सूत्रके चौथा ठागामें 'संघ' शब्दका अर्थ करते हुए टीकाकारने लिखा है कि-"संघः गुणरत्नपात्र भूत सत्व समूहः” अर्थात गुणरूपी रनके पात्र भूत प्राणियोंके समूहका नाम 'सङ्घ' है । उस संघमें साधु और साध्वीके समान श्रावक और श्राविका भी मौजूद हैं इस लिये वे भी गुण रूपी रत्नके पात्र होनेसे सुपात्र ही ठहरते हैं कुपात्र नहीं अतः साधुसे इतर सभीको कुपात्र कायम करना अज्ञानियों का कार्य है। __जब कि साधुसे इतर सभी कुपात्र नहीं हैं तब साधुसे इतरको दान देनेसे एकान्त पाप कैसे हो सकता हैं ? यह बुद्धिमानों को स्वयं विचार लेना चाहिये । साधु विशिष्ट पात्र है अतः उसको दान देनेसे विशिष्ट पुण्य वन्ध होता है और दूसरे लोग साधुकी अपेक्षा निकृष्ट पात्र हैं इस लिये उनको दान देनेसे निकृष्ट पुन्यवन्ध होता है। परन्तु साधुसे इतरको धर्मानुकूल वस्तु दान देनेसे एकान्त पाप हो यह शास्त्र विरुद्ध है । जो व्यभिचार सेवनके लिये वेश्याको दान देता है और जो विनीत मनुष्य माता पिताकी सेवाके लिये दान देता है ये दोनों ही जीतमलजीके हिसाबसे कुपात्रको दान देते हैं इस लिये ये दोनों जीतमलजीके मतानुसार एकान्त पाप का कार्य करते हैं परन्तु शास्त्र ऐसा नहीं कहता यह जीतमल जीकी अपनी कपोल कल्पना है। उवाई सुत्रके मूलपाठमें माता पिताकी सेवा भक्ति करने वाले मनुष्यको स्वर्गगामी कहा गया है यदि माता पिता को दान देना उसकी सेवा भक्ति करना कुपात्र दान और व्यसन कुशीलादिकी तरह एकांत पाप होता तो माता पिताके शुश्रूषक पुरुषको स्वर्गगामी हौना कैसे कहा जाता ? पुण्य से स्वर्गकी प्राप्ति होती है पापसे नहीं अत: साधुसे इतर माता पिता ज्येष्ठ वन्धु आदि गुरुजन तथा श्रावक को कुपात्र कहना अज्ञानका परिणाम है। राजा प्रदेशीने बारह व्रत धारण करनेके पश्चात दान शाला खोल कर बहुतसे हीन दीन दुःखी प्राणियोंको अनुकम्पा दान दिया था और शास्त्रकारने उसके दानकी निन्दा नहीं की है यदि साधुसे इतरको दान देना मांसाहार और व्यसन कुशीलादिकी तरह Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034599
Book TitleSaddharm Mandanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Maharaj
PublisherTansukhdas Fusraj Duggad
Publication Year1932
Total Pages562
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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