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दानाधिकारः।
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एकान्त पापका कार्य होता तो शास्त्रकार राजा प्रदेशीके दानकी अवश्य निन्दा करते और राजा प्रदेशी भी बारह व्रत धारण करके एक नवीन एकान्त पापका कार्य क्यों आरम्भ करता ? पहले उसने दानशाला नहीं बनाई थी अब वह ऐसा निन्दित कार्य क्यों करता ? इससे स्पष्ट सिद्ध होता है कि साधुसे इतरको दान देना एकान्त पापका कार्य नहीं है तथा साधुसे इतर सभी कुपात्र भी नहीं हैं । हीन दीन प्राणी भी अनुकम्पा दानके पात्र हैं अतः हीन दीन जीवों पर दया लाकर दान देना भी पुण्य कार्य है एकांत पाप नहीं है इस लिये साधुसे इतरको दान देनेसे एकान्त पापकी स्थापना करना अज्ञानियोंका कार्य है।
( बोल १६) (प्रेरक)
भ्रमविध्वंसनकार भ्रमविध्वंसन पृष्ठ ८० के ऊपर ठाणाङ्ग सूत्र ठाणा ४ का मूल पाठ लिख कर उसकी समालोचना करते हुए लिखते हैं :
“अथ इहां पिण कुपात्र दान कुक्षेत्र कथा कुपात्ररूप कुक्षेत्रमें पुण्य रूप बीज किम उगे" इनके कहनेका भाव यह है कि साधुसे इतर सभी कुपात्र हैं और कुपात्रोंको इस प.ठमें कुक्षेत्र कहा है अतः जैसे कुशेत्रमें गेहूं चने आदिके बीज नहीं उगते उसी , तरह साधुसे इतर मनुष्यको दिया हुआ दान भी पुण्य रूप अंकुरको नहीं उत्पन्न करता ।
इसका क्या समाधान ? (प्ररूपक) ____ठाणाङ्ग सूत्रका वह पाठ लिख कर इसका समाधान किया जाता है। वह पाठ यह है :
"चत्तारि मेहा पण्णत्ता तंजहा खेत्तवासी नाम मेगे णो मखेतवासी एवामेवा चत्वारि पुरिस जाया पण्णत्ता संजहा खेत्तवासी नाम मेगे णो अखेत्तवासी" (ठाणाङ्ग ठाणा ४) अर्थात् मेघ चार प्रकार के होते हैं एक तो वह है जो क्षेत्रमें ही वरसता है अक्षेत्रमें नहीं। दूसरा अक्षेत्रमें बरसता है क्षेत्रमें नहीं बरसता । तीसरा-क्षेत्र और अक्षेत्र दोनोंमें बरसता है । चौथा-क्षेत्र अक्षेत्र किसीमें नहीं बरसता। इसी तरह मनुष्य भी चार प्रकार के होते हैं । एक तो वह है जो पात्रको दान देता है अपात्रको नहीं देता। दूसरा-अपात्र को दान देता है पात्रको नहीं देती। तीसरा-पात्र और अपात्र दोनों ही को दान देता है। चौथा-पात्र और अपात्र किसीको भी नहीं देता। यह उक्त मूलका अर्थ है।
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