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दानाधिकारः।
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चीजोंसे भिन्न वस्तु यदि पुण्यार्थ दो जाय तो उससे पुण्य नहीं होता क्योंकि पडीहारी सुई कतरनी आदि देनेसे पुण्य होना इस पाठमें नहीं कहा है पर उनके दानसे भी पुण्य ही होता है तथापि इस पाठमें पुण्यके मुख्य २ कारण कहे गये हैं । गौण रूप पुण्यका कथन यहां नहीं है इसलिये अन्न दानादिसे भिन्न वस्तुओं का दान भी यदि धर्मानुकूल हो तो वह एकान्त पापमें नहीं है । जैसे इस पाठमें नहीं लिखी हुई सुई कतरनी अचित्त मिट्टीके ढेले औषधादि चीजोंके दानसे पाप नहीं होता उसी तरह साधुसे इतरको पुण्यार्थ यदि धर्मानुकूल वस्तु दी जाय तो उससे भी एकान्त पाप नहीं होता। अत: 'अनेराने दियां पुष्प हुवे तो गाय पुण्णे' इत्यादि भ्रमविध्वंसनकारका तर्क अयुक्त समझना चाहिये ।
(बोल १५)
(प्रेरक)
भ्रमविध्वंसनकार साधुसे इतर सभीको कुपात्र मानते हैं। माता पिता ज्येष्ट बंधु आदि गुरुजन भी इनके मतमें कुपात्र हैं उनको यदि धर्मानुकूल कोई वस्तु दो जाय तो भ्रमविध्वंसनकार कुपात्र दान ठहरा कर उसे एकान्त पाप कहते हैं। इनका सिद्धान्त है कि वेश्या हिंसक चोर आदिको व्यभिचार, हिंसा और चोरीके लिये दान देना जैसे एकान्त पाप है उसी तरह साधुसे इतरको दान देना एकान्त पाप है। भ्रमविध्वंसन पृष्ठ ७९ पर जीतमलजीने लिखा है कि "साधुथी अनेरो तो कुपात्र छै तेहने दीधां अनेरी प्रकृतिनो बन्ध ते अनेरी प्रकृति पापनी छै” अर्थात साधुसे इतर सभी कुपात्र हैं उनको दान देना कुपात्र दान है । कुपात्र दानका फल जीतमल जीके सिद्धान्तानुसार बतलाते हुए संशोधक महाशयने भ्र० पृ० ८२ पर यह लिखा है :
"कुपात्रदान, मांसादिसेवन व्यसन कुशीलादिक ये तीनों एक ही मार्गके पथिक हैं। जैसे चोर, जार, ठग ये समान व्यवसायी हैं उसी तरह जयाचार्य सिद्धान्तानुसार कुपात्र दान भी मांसादि सेवन व्यसन कुशीलादिकी श्रेणीमें ही गिनने योग्य हैं।"
इसका क्या समाधान ? (प्ररूपक)
साधुसे इतर सभीको कुपात्र कहना शास्त्र विरुद्ध है। कहीं भी साधुसे इतरको कुपात्र नहीं कहा है। श्रावक साधुसे इतर होता हुआ भी गुणरत्नका पात्र और तीथमें कहा गया है । भगवती सूत्र शतक २० उद्देशा ८ में यह पाठ आया है :
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