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________________ दानाधिकारः । १६७ दुष्प्रयोगको न्यून करनेके लिये दान दिया जाता है उसकी वृद्धिके लिये नहीं उसी तरह sarat भी उसके दोषोंको निवृत्तिके लिये दान दिया जाता है उनकी वृद्धिके लिये नहीं अतः श्रावकको दान देनेसे एकान्त पाप कहनेवाले मिथ्यावादी हैं । भ्रमविध्वंसनकार साधुके भोजनको धर्ममें और श्रावकके भोजनको पापमें कायम करके श्रावकको दान देनेसे एकान्त पाप होना बतलाते हैं परन्तु शास्त्रविरुद्ध होने से यह अप्रामाणिक है । राज प्रश्नीय सूत्रमें भोजन विशेषसे पुण्य होना भी कहा है वह पाठ यह है : "सुरियाणं भन्ते ! देवेणं सादिव्वा देविड्ढी सा दिव्वा देवजुई से दिव्वे देवाणुभागे किण्णा लद्ध किण्णोपत्ते किण्णा अभि समण्णागर पुत्र भवे के आसी किंनाम एवा को वा गुत्तेणं कयरं सिवा गामंसिवा जाव संनिवेसंसिवा किंवा भोचा किंवा किच्चा किंवा समारित्ता कस्सवा तहारूवस्स समणस्स वा माहणस्सवा अन्तिए एगमपि आरियं धम्मियं सुवयणं सोचा णिसम्म जण्णं सुरियाभेणं देवेणं सादिव्वा देव इड्ढी जावदेवाणुभागे लद्ध पत्ते अभिसमण्णा गए" । ( राज प्रश्नीय सूत्र ) अर्थ: हे भगवन् ! इस सूर्य्याभ देवने ऐसी उत्तम दिव्य ऋद्धि, ऐसी उत्तम द्युति और इस प्रकारका दिव्य प्रभाव कैसे प्राप्त किया है ? यह सूर्य्याभ देव पूर्वजन्ममें कौन था इसके नाम और गोत्र क्या थे यह किस ग्राम में या नगर में निवास करता था इसने पूर्वजन्ममें कौनसा दान दिया था किस नीरस पदार्थका भोजन किया था तथा कौनसा उद्योग और कौनसी तपस्या की थी किस श्रमण या माहनसे इसने एक भी आर्य्यं धर्म सम्बन्धी सुवाक्य सुना था जिससे इसको दिव्य ऋद्धिसे लेकर यावत् इस प्रकारका प्रभाव प्राप्त हुआ है।. इस पाठ्में जैसे तथा रूपके श्रमण माहनसे आर्य धर्म सम्बन्धी सुवाक्य सुनने से तथा दान देने तपस्या करने आदिसे दिव्य ऋद्धिकी प्राप्ति कही गयी है उसी तरह भोजन करने से भी कही गयी है इससे स्पष्ट सिद्ध होता है कि साधुके सिवाय दूसरेका खाना पीना एकान्त पापमें नहीं है । यदि शुभ आशयसे नीरस पदार्थका भोजन किया जाय तो उससे पुण्य भी उत्पन्न होता है अतः श्रावक के खानेपीने आदि कार्य्योको एकान्त पापमें स्थापन करना इस पाठसे विरुद्ध और अज्ञानका परिणाम समझना चाहिये । ( बोल २७ ) Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034599
Book TitleSaddharm Mandanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Maharaj
PublisherTansukhdas Fusraj Duggad
Publication Year1932
Total Pages562
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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