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________________ ३३६ सद्धर्ममण्डनम् । इस टव्वा अर्थमें साफ साफ लिखा है कि कृष्णादि तीन अप्रशस्त भाव लेश्याओं में साधुपना नहीं होता इसलिये इन लेश्याओंमें प्रमादी और अप्रमादी दोनों प्रकार के संयत वर्जित किये गये हैं तथापि उक्त मूलपाठ, उसकी टीका तथा टव्वा अर्थ, इन तीनों को नहीं मान कर कृष्णादिक तीन भाव लेश्यामोंमें साधुपनाका स्थापन करना, मिथ्यात्वका परिणाम है। जिस प्रकार भगवतीके उक्त मूलपाठ, उसकी टीका और टव्वा अर्थमें कृष्णादि तीन भाव लेश्याओंमें प्रमादी और अप्रमादी दोनों ही प्रकारके साधुओंको वर्जित किया है उसी तरह भगवती सुत्र शतक १ उद्देशा २ में कृष्णादि तीन भाव लेश्याओं में सराग, वीतराग, प्रमादी और अप्रमादी इन चारों प्रकारके साधुओंको वर्जित किया है । वह पाठ यह है: "सलेस्साणं भन्ते ! नेरइया सव्वे समाहोरगा ? ओहियाणं सलेस्साणं सुक्कलेस्साणं एएसिणं तिनं तिण्ह एक्को गमो कण्हले. स्साणं नील लेस्साणं वि एक्को गमो। नवरं वेदणोए मायो मिच्छ दिघी उववन्नगाय अमायिसम्मदिठी उवगन्नगाय भाणियव्वा मणुसा किरियासु सराग वीयरागपमत्ता पमत्ता न भाणियना। काउलेस्साणवि एसेव गमो नवर नेरइए जहा ओहिए दण्डए तहा भाणियळा । तेउलेस्सा पद्मलेस्सा जस्स अत्थि जहा ओहिओ दण्डओ तहा भाणियमा नबार मणुसा सराग वीयरागा नभाणियला" (भ० श० १ ० २) अर्थ : (प्रश्न ) हे भगवन् ! सलेशी सभी नारकि जीवोंका क्या एक समान ही आहार है ? (उत्तर)ओधिक सलेशी और शुक्ललेशी इन तीनोंके लिये एक समान ही पाठ कहना चाहिये । एवं कृष्गलेशो और नीललेशी जीवोंके लिये भी एक समान ही पाठ कहना चाहिये परन्तु वेदनाके विषय में विशेष यह है कि-मायो मिथ्या दृष्टि महान वेदना वाले होते हैं और अमायी सम्यग्दृष्टि अल्पवेदना वाले होते हैं मनुष्यपदमें क्रिया सूत्रके अन्दर यद्यपि ओधिक दण्डकमें सरागी वीतरागी प्रमादी और अप्रमादी कहे हुए हैं तथापि कृष्ण और नील लेश्याके दण्डकमें इन्हें नहीं कहना चाहिये । कापोत लेश्याके दण्डकको भी नील लेश्याके दण्डकके समान ही कहना चाहिये परन्तु इसमें विशेष यही है कि कापोत लेश्या वाले नारकि जीवोंको ओधिक दण्डकके समान कहना चाहिये । तेजोलेश्या और पद्म लेश्या वाले जीवोंको ओधिक दण्डकी तरह कहना Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034599
Book TitleSaddharm Mandanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Maharaj
PublisherTansukhdas Fusraj Duggad
Publication Year1932
Total Pages562
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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