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मिथ्वात्विक्रियाधिकारः ।
अर्थात् सर्वज्ञसे रचा हुआ जो पाषण्ड हैं उससे भिन्न पाषण्डकी प्रशंसा करना. सम्यक्त्वका अतिचार है ।
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यहां सर्वज्ञसे पाषण्डका रचा जाना कहा है जो लोग पाषण्डका व्यर्थ केवल दम्भ बतलाते हैं उनसे पूछना चाहिये कि सर्वज्ञने कौनसा दम्भ रचा है ? यदि वे सर्वज्ञसे दम्भ कारचा जाना न मानें तो उक्त टीकाके पाषण्ड शब्दका उन्हें व्रत अर्थ मानना ही पड़ेगा इस प्रकार उक्त टीकाका यही अर्थ है कि जो पाषण्ड यानी व्रत सर्वज्ञका कहा हुआ नहीं है उसकी प्रशंसा करना सम्यक्त्वका अतिचार है । यदि पाषण्ड शब्दका दम्भ ही अर्थ होता है तो मूलपाठ में "पाषण्ड" शब्दके पहिले "पर" लगानेकी क्या आवश्यकता थी क्योंकि जैसे दूसरेका दम्भ बुरा है वैसे ही अपना दम्भ भी ती बुरा होना चाहिये फिर " पर" शब्द क्यों लगाया ? केवल यही कहा जाता कि "मैंने यदि पाषण्डकी प्रशंसा की हो तो " तस्समिच्छामि दुक्कडं" परन्तु ऐसा न कह कर जो मूलपाठमें "परपाषण्ड" कहा है इससे स्पष्ट सिद्ध होता है कि " पाषण्ड" नाम व्रतका है उस व्रतके धारण करनेवाले पुरुषों से सत्यका ग्रहण किया जाना प्रश्न व्याकरण सूत्रके दूसरे संवरद्वारमें कहा है इसलिये प्रश्न व्याकरण सूत्रका नाम लेकर मिध्यादृष्टि अज्ञानी दाम्भिक पुरुषोंमें सत्यका स्थापन करना एकान्त मिया है ।
( बोल ३८ वां समाप्त )
( प्रेरकं )
भ्रमविध्वंसनकार भ्रमविध्वंसन पृष्ठ ४५ पर जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिका मूलपाठ लिख कर उसकी समालोचना करते हुए लिखते हैं:
"अथ अठे इम को ते वन खण्डने विषे वाण व्यन्तर देवता देवी बैसे सुर्वे क्रीडा करे पूर्वभवे भला पराक्रम फोडव्या तेहना फल भोगवे एहवा श्री तीर्थ कर देवें कयों । तो जे वाण व्यन्तरमें तो सम्यग्दृष्टि उपजै नहीं । व्यन्तरमें तो मिध्यात्वीज उपजें हैं अने मिथ्यात्वीरों सर्व पराक्रम अशुद्ध हुवे तो श्रीतीर्थंकर देवे इम क्यू क्यों जे वाण व्यन्तरे पूर्वभवे भला पराक्रम किया तेहना फल भोगवे है । एतो मिथ्यात्वीरा शील तपादिकने विषे भलो पराक्रम को छै । जो तिगरी पराक्रम अशुद्ध हुवे तो भगवन्त भली पराक्रम न कंहिता । एतो भली करणी करे ते आज्ञा मांहिं छै" ( ० पृ० ४५ ) इसका क्या समाधान ?
(प्ररूपक)
जम्बूद्वीप प्रज्ञप्तिके मूलपाठमें व्यन्तर संज्ञक देवताओंके पूर्वभवके कार्यको ग वान्ने अच्छा कह कर बतलाया है इससे यह नहीं सिद्ध हो सकता कि उन देवताओंके
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