SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 252
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २०२ सद्धर्ममण्डनम् । गये हैं तिय॑श्च श्रावकोंके भी कहने चाहिये ?" तो इसका उत्तर यह है कि तिलाञ्च श्रावकोंके पास धार्मिक उपकरण नहीं होते और धार्मिक उपकरणके न होनेसे उपकरण का सुप्रणिधान उनमें असम्भव है इस लिये तिय्येच श्रावकोंके चतुबिंध सुप्रणिधान यहां नहीं कहे गये हैं । यद्यपि तियेच श्रावकोंके भी मन वचन और कायके व्यापार सुप्रधान होते हैं तथापि उपकरणके व्यापार न होनेसे तिर्यञ्च श्रावकोंका यहां कथन नहीं है। यह ठाणाङ्ग सूत्रका चौथा ठाणा है इस लिये जिसके चारों व्यापार यानी मन, वचन काय और उपकरणके व्यापार सुप्रणिधान होते हैं उन्हींका यहां कथन है। ___ उक्त चारों सुप्रणिधान मनुष्य श्रावक और साधुओंके ही होते हैं तिर्य्यब्च श्रावकोंके नहीं होते अत: इस पाठमें मनुष्य संयतियोंके ही चतुर्विध सुप्रणिधान कहे गये हैं तियंठच श्रावकोंके नहीं। अत: इस पाठका नाम लेकर श्रावकके पूजनी आदि धों पकरणोंको एकान्त पापमें स्थापन करना अज्ञानका परिणाम है। यदि कोई कहे कि "श्रावक असंयम पालनके लिये भी मन, वचन, काय और उपकरणोंका प्रयोग करते हैं फिर उनके ये व्यापार भी सुप्रणिधान क्यों नहीं मानते ?" तो इसका उत्तर यह है कि श्रावक संयम पालनके लिये जो मन वचन काय और उपकरणका व्यापार करते हैं उन्हीं व्यापारोंकी अपेक्षासे वे देश संयति माने जाते हैं असंयम सेवनके लिये जो उक्त चतुर्विध व्यापार करते हैं उनकी अपेक्षा से नहीं इस लिये उक्त चतुर्विध व्यापार जो संयम पालनार्थ होते हैं वे ही सुप्रणिधान हैं दूसरे व्यापार नहीं। असंयमके उपकारार्थ जो श्रावकके मन, वचन, काय और उपकरणके ब्यापार होते हैं उनकी अपेक्षासे श्रावक असंयत माना जाता है और संयम पालनार्थ जो उसके चतुर्विध व्यापार होते हैं उनकी अपेक्षासे वह संयत समझा जाता है अतएव शास्त्रमें श्रावकको “संयता संयत" कहा है। "संयता संयत" वही है जो देशसे संयम धारी है और जिसके मन, वचन, काय और उपकरणके व्यापार देशसे संयमोपकारी हैं। अतः संयमका उपकारके लिये जो श्रावकोंके मन, वचन, काय और उपकरणके व्यापार होते हैं वे सुप्रणिधान हैं और असंयम पालनार्थ जो उसके उक्त चतुर्विध व्यापार होते हैं वे दुष्प्रणिधान हैं परन्तु भ्रम विध्वंसन कार सामायक और पोषामें बैठे हुए श्रावकके मन, वचन और कायके व्यापारको तो सुप्रणिधान और उसके उपकरणके व्यापारको दुष्प्रणिधान कहते हैं यह इनका एकान्त व्यामोह है। सामायक और पोषामें बैठे हुए श्रावकोंके उपकरणोंका व्यापार यदि दुष्प्रणिधान है तो उसके मन वचन और कायके व्यापार कैसे सुप्रणिधान हो सकते हैं ? और मन वचन तथा कायके व्यापार यदि सुप्रणिधान हैं तो उसका उपकरणका व्यापार कैसे दुष्प्रणिधान हो सकता है ? अतः सामा Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034599
Book TitleSaddharm Mandanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Maharaj
PublisherTansukhdas Fusraj Duggad
Publication Year1932
Total Pages562
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy