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________________ ४१३ पुण्याधिकारः। (प्रेरक) । पुण्यानुबन्धी पुण्य किसे कहते हैं और उसकी उत्पत्ति कैसे होती है ? (प्ररूपक) "गेहाद्गेहान्तरं कश्चित् शोभनादधिकं नरः याति यद्वत् सुधर्मेण सद्धदेव भवायम्" (श्लोक हरिभद्रसरिकृत) अर्थ: जैसे कोई मनुष्य सुन्दर मकानसे निकल कर उससे भी अधिक सुन्दर दूसरे मकानमें जाता है उसी तरह जिस पुण्यके द्वारा जीव, मनुष्यादि उत्तम योनियोंको छोड़ कर उससे भी उत्तम देवादि योनियोंमें जाता है उसे पुण्यानुबंधी पुण्य कहते हैं। इस पुण्यानुवंधी पुण्यका कारण हरिभद्र सूरिने इस प्रकार बतलाया है। __"दया भूतेषु वैराग्यं विधिवद्गुरु पूजनम् । विशुद्धा शील वृत्तिश्च पुण्यं पुण्यानुवन्ध्यदः" अर्थात् सब प्राणियोंके उपर दया ( अनुकम्पा) रखना, वैराग्य, और विधिवत गुरु पूजन, तथा अतिचार रहित अहिंसा मादि व्रतोंका पालन करना, ये सब पुण्यानुबंधी पुण्यके कारण होते हैं। आगे चल कर हरि भद्र सूरिने यह भी लिखा है कि मोक्षाविषोंको पुण्यानुवंधी पुग्या आदर करना चाहिये । जैसे कि . “शुपक्ष्यतः पुण्यं कर्तव्यं सर्वथा नरैः यत्प्रभावादपातिन्यो चायन्ते सर्वसम्पदः” ..मयत मागुन्बों को पुण्यानुबंधी पुण्यका आदर करना चाहिये। क्योंकि इसके प्रभावले अविनाकर सब सम्पत्तियां प्राप्त होती हैं। इसमें पुण्यानुवंधी पुण्यको मादरणीय कहा है। अतः मोक्षार्थी पुरुष भी इसका [बोल १ समाप्त ] (प्रेरक) मोक्षार्थियोंको पुण्यका फल आदरणीय है या नहीं ? (प्ररूपक) साधन सा मोक्षार्थियोंको भी पुण्य फल मावरणीय है। शास्त्रों मोक्ष प्राप्तिके चार मुख्य कारण कहे हैं । जैसे कि Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034599
Book TitleSaddharm Mandanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Maharaj
PublisherTansukhdas Fusraj Duggad
Publication Year1932
Total Pages562
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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